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________________ द्वितीय अध्याय : ध्वनि-परिवर्तन ( स्वर- व्यञ्जन परिवर्तन ) संस्कृत-शब्दराशि में ध्वनि-परिवर्तन (वर्ण-विकृति ) के आधार पर प्राकृतशब्दराशि का निर्वचन किया जाता है । इस सन्दर्भ में प्राकृत-वैयाकरणों ने जो नियम बनाये हैं उनमें से अधिकांश वैकल्पिक हैं क्योंकि प्राकृत में अनियमित ( वैकल्पिक ) शब्द-प्रयोगों की बहुलता पाई जाती है। इन ध्वनि-परिवर्तनों का कारण है--उच्चारण-सौकर्य। प्राकृत की शब्दराशि को निम्न तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है (१) तत्सम-जो संस्कृत के शब्द ज्यों के त्यों प्राकृत में स्वीकार किए गए हैं । जैसे-देव, राम आदि । (२) तद्भव--जो संस्कृत से वर्ण-विकृति द्वारा निष्पन्न होते हैं। जैसेसागर सायर, शाखा-साहा आदि । (३) देशज--जिनकी व्युत्पत्ति संस्कृत से सिद्ध नहीं होती है । जैसेडाल (शाखा), लडह (रम्य) आदि । इस अध्याय में प्रायः तद्भव शब्दों की व्युत्पत्ति से सम्बन्धित कुछ सामान्य नियमों को समझाया गया है जिससे प्राकृत-शब्दराशि में प्रवेश संभव हो सके । सुबोधता की दृष्टि से इस अध्याय को तीन उपभागों में विभक्त किया गया है-(१) स्वर-परिवर्तन, (२) असंयुक्त व्यञ्जन-परिवर्तन और (३) संयुक्त व्यञ्जन-परिवर्तन। (क) स्वर-परिवर्तन : (१) 'ऋ' और 'ऋ' के स्थान पर अ, इ, उ, रि और ए आदेश यथावसर होते हैं । जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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