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________________ २४४ ] प्राकृत-दीपिका [ अर्ध०; मागधी मित्तनाइ० चउण्ह य सुण्हाण कुलघरवग्गस्स पुरओ रोहिणियं सुण्हं तस्स कुलघरवग्गस्स बहुसु कज्जेसु य जाव रहस्सेसु य आपुच्छणिज्ज जाव सव्वकज्जवड्ढावियं प्रमाणभूयं ठावेइ। एवामेव समणाउसो ! जाव पंच य से महा व्वया संवड्ढिया भवंति से ण इह भवे चेव बहूण समणाणं० अच्चणिज्जे जाव वीईवइस्सइ जहा व सा रोहिणिया। - प्रभृतेः, चतसृणां च स्नुषाणां कुलगृहवर्गस्य पुरतो रोहिणिकां स्नुषां तस्य कुलगृहवर्गस्य बहुषु कार्येषु यावद्रहस्येषु च आप्रच्छनीयां यावत् सर्वकार्यवद्धिका प्रमाणभूतां स्थापयति । [श्रीवर्धमानस्वामी प्राह ] एवमेव हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तः ! यदि पञ्च च तस्य महाव्रतानि संवद्धितानि भवन्ति स खलु इह भवे एव बहूनां श्रमणानां ० अर्चनीयः यावत [ संसारकान्तारम् ] व्यतिव्रजिष्यति (पारयिष्यति ) यथा च सा रोहिणिका। छकड़ियों) द्वारा लौटाते हुए देखता है, देखकर हर्षित एवं सन्तुष्ट होता हुआ उन्हें स्वीकार करता है। स्वीकार करके उसने उन्हीं मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के सामने रोहिणिका पुत्रवधू को उस कुलगृहवर्ग के अनेक कार्यों में यावत् रहस्यों में पूछने योग्य, यावत् गृहकार्य का संचालन करने वाली और प्रमाणभूत के रूप में नियुक्त किया। [श्री वर्धमान स्वामी ने कहा ] इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो अपने पांच महाव्रतों को बढ़ाते हैं वे इसी जन्म में बहुत से श्रमणों आदि के द्वारा पूजनीय होकर यावत् संसार से मुक्त हो जाते हैं, जैसे वह रोहिणिका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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