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________________ १०] प्राकृत-दीपिका [ जैन महाराष्ट्री अच्छिऊण समुट्टिओ राया आमणाओ, कय दियह-वावारस्स य astiतो सो दियहों । (८) कल्लाणमित्तो अस्थि इहेव जम्बुद्दीवे दीवे अवरविदेहे वासे, उत्तुङ्गधवलपागारमण्डियं नलिणीवणसंछन्न परिहासणाहं, सुविभत्ततिय- चउक्क- चच्चरं भवणेहिं जियसुरिन्दभवणसोहं खिइपइट्ठियं नाम नयरं । तत्थ य राया संपुष्णमण्डलो मयकलङ्कपरिहीणो । जणमणणय णाणन्दो नाणं पुण्णचन्दो त्ति ॥ कर्तव्यं यथा ममापुत्रस्य एष पुत्रो भवति' इति । ततः किञ्चित्कालं स्थित्वा समुत्थितो राजा आसनात् । कृतदिवसव्यापारस्य च तस्यातिक्रान्तो दिवसः । संस्कृत-छाया ( कल्याणमित्रम् ) अस्ति इहैव जम्बूद्वीपे अपरविदेहे वर्षे, उत्तुङ्गधवलप्राकारमण्डितम्, नलिनीवनसंछन्न परिखासनाथम्, सुविभक्तत्रिक-चतुष्कचत्वरम्, भवनैजित सुरेन्द्रभवनशोभं क्षितिप्रतिष्ठितं नाम नगरम् । तत्र च राजा संपूर्ण मण्डलो मृग ( मद ) - कलंकपरिहीणः । जनमनो-नयनानन्दो नाम्ना पूर्णचन्द्र इति ॥ 1 सिंहासन से उठ खड़ा हुआ । दैनिक क्रियाओं को करते हुए उसका दिन बीत गया। हिन्दी अनुवाद ( कल्याणमित्र ) यहीँ जम्बूद्वीप में अपरविदेह नामक देश में क्षितिप्रतिष्ठ नाम का नगर था जो उन्नत तथा सफेद परकोटे से मण्डित था, कमलिनियों के वन से आच्छादित खाई (परिखा) से युक्त था, त्रिकों (जहाँ तीन रास्ते मिलते हैं), चतुष्कों ( जहाँ चार रास्ते मिलते हैं) और चत्वरों (चौक) से सुविभक्त था तथा इन्द्र के भवनों की शोभा को जीतने वाले भवनों से युक्त था । वही पूर्णचन्द्र ( पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान ) नाम का राजा था जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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