SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०८] प्राकृत दीपिका [ जैन महाराष्ट्री वित्थरो वयण-विण्णासो य' त्ति भणमाणेण राइणा पलोइयाई मंतिवयणाई । तओ मंतीहिं भणियं 'देव' ! को एत्थ विम्हओ, जहा गुजाहल-फल-प्पमाणो वि जलणो दहण-सहावो, सिद्धट-पमाणो वि वइरविसेसो गुरुसहावो, तहा एए वि महावंस-कुल-प्पसूया रायउत्ता सत्तपोरुस-माण-प्पमाण-प्पभूय-गुणेहिं संवड्डिय-सरीरा एव होति । अण्णं च देव, ण एए पयइ-पुरिसा, देवत्तण-चुया साक्सेस-सुह-कम्मा एत्थ जायंति' ति । तओ राइणा भणियं ‘एवं चिय एयं, ण एत्थ संदेहो' त्ति। भणिओ य साणुणयं कुमारो राइणा 'पुत्त महिंदकुमार मा एवं इति भण्यमाणेण राज्ञा प्रलोकितानि मंत्रिवदनानि । ततो मन्त्रिभिर्भणितम्'देव ! कोऽत्र विश्मय: ? यथा गुञ्जाफल प्रमाणोऽपि ज्वलनो दहनस्वभावः, सिद्धार्थप्रमाणोऽपि वैरविशेषो ( रत्नविशेषो) गुरुस्वभावः तथैतेऽपि महावंशकुलप्रसूता राजपुत्राः सत्त्व-पौरुषमानप्रमाणप्रभूतगुणः संवधितशरीरा एव भवन्ति । अन्यच्च देव नेते प्रकृतिपुरुषाः । देवत्वच्युताः सावशेषशुभकर्माणोऽत्र जायन्ते' इति । ततो राज्ञा भणितम् ‘एवमेवैतत् नात्र संदेह' इति । भणितश्च सानुनयं कुमारो राज्ञा 'पुत्र महेन्द्रकुमार ! मा एवं चिन्तय, सब सर्वथा आश्चर्यजनक है जो इस अवस्था में होने पर भी इस प्रकार का बुद्धिविलास और वचनप्रयोग है।' इस प्रकार कहते हुए राजा ने मंत्रियों के मुख की ओर देखा। इसके बाद मन्त्रियों ने कहा--'हे राजन् ! इसमें आश्चर्य क्या है ? जैसे गुजाफल ( अत्यन्त तुच्छ ) प्रमाण भी आग दहन-स्वभाव वाली होती है, जैसे सिद्धार्थ प्रमाण भी रत्नविशेष गुरु-स्वभाव वाला होता है उसी प्रकार ये महाकुलोत्पन्न राजपुत्र भी सत्त्व, पौरुष, मान आदि अनेक गुणों के द्वारा संबधित शरीर वाले होते हैं।' और भी 'हे राजन् ! ये सामान्य पुरुष नहीं हैं अपितु अवशिष्ट शुभकर्मों वाले देवता की पर्याय से च्युत हुए ही यहाँ पैदा होते हैं। तब राजा ने कहा--'यह ऐसा ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । राजा ने विनम्रता के साथ कुमार से कहा-'पुत्र महेन्द्रकुमार ! तुम ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy