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________________ २०० ] प्राकृत-दीपिका [ जैन महाराष्ट्री २८. दिट्ठा य सासुयाए, गुरुभारा एस मूढहिययाए। काऊण दुट्टसीला, पिउभवणं पेसिया सिग्छ ।। ९९ ॥ २९. तेण वि य महिन्देणं, निच्छुढा तिव्वदोसभीएणं । समयं मए पविट्ठा, एसा रणं महाघोरं ।। १०० ।। ३०. एसा दोसविमुक्का, रयणीए अज्ज पच्छिमे जामे । वरदारयं पसूया, पलियङ्कगुहाएँ मज्झम्मि ।। १०१॥ ३१. एयं चिय परिकहिए, जंग इ विज्जाहरो सुणसु भद्दे !। नामेण चित्तभाणू, मज्झ पिया कुरुवरद्दीवे ।। १०२ ॥ २८. दृष्टा च श्वश्वा गुरुभारा एषा मूढहृदयया । कृत्वा दुष्टशीला पितृभवनं प्रेषिता शोघ्रम् ॥ २९. तेनापि च महेन्द्रण निष्क्रान्ता तीव्रदोषभीतेन । सह मया प्रविष्टा एषाऽरण्यं महाघोरम् ।। ३०. एषा दोषविमुक्ता रजन्या अद्य पश्चिमे यामे । वरदारकं प्रसूता पर्यङ्कगुफायां मध्ये ।। ३१ एवमेव परिकथिते जल्पति विद्याधरः श्रुणु भद्र ! । नाम्ना चित्रभानुर्मम पिता कुरव द्वीपे । २८. मूढ़ हृदयवाली सास ने देखा कि यह गर्भवती है। अतः कुशील का दोषारोपण करके उसे शीघ्र ही पिता के घर भेज दिया। २९. बड़े भारी दोष के भय से उस महेन्द्र ने भी इसे निकाल दिया। इस कारण मेरे साथ इसने अतिभयंकर अरण्य में प्रवेश किया है। ३०. दोष से रहित इसने आज के पिछले प्रहर में इस पर्यङ्क-गुफा में उत्तम पुत्र को जन्म दिया है। ३१. इस प्रकार कहने पर विद्याधर ने कहा कि हे भद्रे ! सुनो, कुरुवर द्वीप में मेरे चित्रभानु नाम के पिता हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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