SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ ] प्राकृत-दीपिका [चतुर्दश अध्याय २. र >ल (विकल्प से )- गोरी> गोली गोरी, राजा>लाचा राचा, रामः >लमो रामो, चरण >चलनं चरनं । नोट-शेष पैशाचीवत् समझना । (६) अपभ्रंश अपभ्रंश का अर्थ है- च्युत, भ्रष्ट, स्खलित, विकृत या अशुद्ध । अपभ्रंश को भी प्राचीन वैयाकरणों ने प्राकृत का एक भेद स्वीकार किया है। हेमचन्द्राचार्य ने इसकी प्रमुख विशेषताएं बतलाकर इसे शौरसेनीवत् कहा है। इसका साहित्य के रूप में प्रयोग ५ वीं शताब्दी के भी पूर्व होने लगा था। प्राकृतचन्द्रिका में इसके देशादि ( भाषा आदि ) के भेद से २७ भेद गिनाये गये हैंवाचड, लाटी, वंदर्भी, उपनागर, नागर, बार्बर, अवन्ती, पाञ्चाली, टाक्क; मालवी, कैकेयी, गौडी, कौन्तली, औढी, पाश्चात्या, पाण्ड्या, कौन्तली, सैहली, कालिङ्गी, प्राच्या, कार्णाटी, काञ्ची, द्राविडी, गोर्जरी, आभीरी, मध्यदेशीया एवं वैतालिकी। मार्कण्डेय ने भी इन २७ भेदों का उल्लेख प्राकृतसर्वस्व में किया है । अपभ्रंश के प्रमुख तीन भेद किये जाते हैं- नागर,. उपनागर और वाचड। अनेक विद्वान् अपभ्रंश को एक स्वतन्त्र भाषा के रूप में स्वीकार करते हैं। अपभ्रंश को वे प्राकृत और आधनिक भारतीय भाषाओं की मध्य की कड़ी मानते हैं । पतञ्जलि ने महाभाष्य में संस्कृत से भिन्न सभी असिद्ध गावी, गोणी, गोता आदि प्राकृत एवं अपभ्रंश के शब्दों को सामान्य रूप से अपभ्रंश कहा है। वस्तुतः प्राकृत का अन्तिम चरण अपभ्रंश है। किस अपभ्रंश से १. शौरसेनीवत् । हे. ८. ४. ४४६. २. प्राकृतचन्द्रिका ( श्रीशेषकृष्णकृता ) ९. १८-२२. ३. वाचडो..."वैतालादिप्रभेदतः । प्राकृतसर्वस्व १.७, पृ. २ ४. भूयांसोऽपशब्दा अल्पीयांसः शब्दाः। एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशा तद्यथा--गोरित्यस्य शब्दस्य गावी गोणी गोता गोपोतलिका इत्येवमादयोड पभ्रंशाः । पातञ्जलमहाभाष्य, पृ० १७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy