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________________ १२८ ] प्राकृत-दीपिका [चतुर्दश अध्याय (२) कभी कभी मध्यवर्ती र >ल में बदल जाता है । जैसे--करणः > कलुणे, चरणम् >चलणं। (३) स्वर-मध्यवर्ती व्यञ्जनों का लोप प्राय: नहीं होता है, यदि लोप होता है तो वहाँ प्रायः 'य'श्रुति अथवा 'त'श्रुति पाई जाती है। जैसे-- श्रेणिक:>सेणिये सेणिते, लोक: >लोये, लोगे, कूणिक: > कूणिते, सामायिक > सामातित । (४) न और ण का वैकलिक प्रयोग होता है । जैसे-सर्वज्ञः>सम्वन्नु सवण्णु, अनल: >अनले अणले, नगरम् >नगरं नयरं, प्रज्ञा>पण्णा पन्ना, नरकात् >नरतातो, दत्तम् >दिन्नम्, जनाः >जणा, उपनीत > उवणीय । (५) मध्यवर्ती ग, त, द, भ, य और ब प्राय: पूर्ववत् रहते हैं। यथावसर 'य' और 'त'श्रुति भी होती है । 'क' प्रायः'ग' में, प' प्राय: 'व' या 'म' में बदल जाते हैं। जैसे-आगम>आगम, भगवन् भगवं, नगरी>नगरी, नेता > णेता णेया, भेद >भेद भेय, नदी >नती, कदाचित् >कताति, उदरम् >उयरं, नमस्यति >नमंसति, जाति जाति, करोति > करेति, करतल>करयल, पुरतः>पुरतो, जितेन्द्रिय >जितिदिय, नदति >णदति, परिवर्तन >परियट्टण, वैभवः, >विभवे, लाभ >लाभ, शोभा >सोभा, प्रयोग >पयोग, अशोकः> असोगे, श्रावक:>सावगे, स्वप्नम् >सुविणं सुमिणं, नीपानीव नीम । एकदा> एगया, आकाशः>आगासे, उपनीत >उवणीय, सोपचार >सोवयार, उपमा> उवमा, संलपति>संलवति, प्रिय>पिय, गायति>गातति, गौरवगारव, भवति भवति । (६) श, ष, स >स---आकाशः >आगासे, चाक्षुषम् >चक्खुसं, सागरः > साय रे। (७) च, ज>त य-पूजा >पूता, आत्मज अत्तय, वाचना>वायणा, आचार्य >आयरिय, नाराच् >णारात्, प्रवचन >पावतण । (८) शब्दरूप संस्कृत के शब्दरूपों के अधिक निकट हैं। षष्ठी और चतुर्थी का भेद स्पष्ट परिलक्षित होता है। जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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