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________________ ( 14 ) कथ्य भाषा का विकासक्रम एवं विभाजन : सर जार्ज ग्रियर्सन ने अपनी 'लिग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया' नामक पुस्तक में प्राकृत के तीन स्तर बतलाये हैं, जिनसे प्राकृत के स्वरूप-विकास का पता चलता है-- (१) प्रथम स्तर या कथ्य भाषा ( ई० पू० २००० से ई० पू० ६००) यह प्राचीनकाल में बोली के रूप में प्रचलित थी। यद्यपि इसका कोई लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है, परन्तु इसके रूपों की झलक छान्दस् साहित्य में देखी जा सकती है। वैदिक काल की समस्त कथ्य भाषाओं को प्राथमिक प्राकृत ( Primary Prakrits ) अथवा प्राकृत भाषा समूह का प्रथम स्तर ( First stage ) कहा जा सकता है। इन प्राथमिक प्राकृतों की एक शाखा ने परिमार्जित होकर छान्दस् भाषा का रूप धारण किया। प्रथम स्तर की ये भाषाएँ स्वर और व्यञ्जन आदि के उच्चारण में तथा विभक्तियों के प्रयोग में वैदिक भाषा के सदृश थीं। जैसे---कृत = कुठ ( ऋग्वेद १. ४६. ४), चुरोदास = पुरोडाश ( शुक्लयजुःप्रतिशाख्य ३. ४४ ), दुर्दभ-दूडभ ( वाजसनेयी संहिता ३.३६ ) पश्चात् = पश्चा ( अथर्वसंहिता १०. ४. ११) आदि प्रथमस्तरीय प्राकृत के रूप हैं। इन्हें विभक्तिबहुल होने से संश्लेषणात्मक ( Synthetic ) भाषा समुदाय कहा जा सकता है। (२) द्वितीय स्तर या साहित्य निबद्ध भाषा ( ई० पू० ६०० से ई०९०० ) प्रथम स्तर की प्राकृत ने परवर्ती काल ( ई० पू० ६०० से ई० ९०० ) में अनेक परिवर्तनों के बाद जब साहित्य का रूप धारण किया, तो उसे द्वितीय स्तर ( Second stage ) की प्राकृत अथवा साहित्य-निबद्ध प्राकृत कहा गया। इस स्तर की प्राकत भाषाओं में चतुर्थी विभक्ति का लोप, सभी विभक्तियों के द्विवचन का लोप तथा क्रियापदों की अधिकांश विभक्तियों का लोप होने पर भी विभक्ति-बहुलता ( Synthetric ) का रूप सुरक्षित रहा। (३) तृतीय स्तर या आधुनिक भाषाए। ई. ९०० के बाद) हिन्दी आदि तृतीय स्तर की प्राकृत भाषाएं हैं। इनकी उत्पत्ति द्वितीय स्तर की प्राकृत विशेषकर अपभ्रंश से हुई है। इनमें अधिकांश विभक्तियों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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