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________________ ११४ [ प्राकृत-दीपिका [ त्रयोदश अध्याय पुत्तकामाइ (पुत्रकाम्यति-पुत्र-प्राप्ति की इच्छा०)। जसकामाअइ, जसकामाइ (यशस्काम्यति यश-प्राप्ति की इच्छा करता है)। (ख) आचारार्थ-रायाअइ, रायाए ( राजायते - राजा के समान आचरण करता है)। अलसाअइ, अलसाइ (अलसायते-आलसी के समान आचरण करता है)। हंसाअइ, हंसाइ (हंपायते-हंस के समान०)। अच्छराअइ, अच्छराइ 'अप्सरायते-अप्सरा के समान० ) । गुरुआअइ, गुरुवाइ ( गुरुकायते गुरु के मान आचरण करता है)। (ग) करोत्यर्थ-सद्दामइ, सद्दाइ (शब्दायते-शब्द करता है)। करुणाअइ, करुणाइ (करुणायते-करुणा करता है)। वेराअइ, वेराइ ( वैरायते-वैर करता है)। (घ) उत्साहाथ-धूमाअइ, धूमाइ (धूमायते -धूम मचाता है)। कट्ठाअइ, कट्ठाइ ( कष्टायते-कष्ट पाप करने को तैयार होता है)। (ङ) वेदनार्थ--सुहाअइ, सुहाइ ( सुखायते सुख का अनुभव करता है या सुखी होता है)। (च) भवत्यर्थ-लोहियाअइ, लोहिआइ ( लोहितायते लाल होता है )। हरिआअइ, हरिआइ (हरितायति हरा होता है)। सीदलाअइ, सीदलाइ ( शीतलायति शीतल होता है)। (छ) उबमनार्थ-वापफाइ, वाफ्फाइ ( वाष्पायते-वाष्पमुद्वमति भाप निकलती है)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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