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शब्दरूप ]
(३) इकारान्त 'हरि' (विष्णु) ' बहुवचन
एकवचन
हरी
हरि
हरिणा हरीहि, हि. हिं
भाग १ : व्याकरण
(४) इकारान्त 'अग्गि' (आग)
हरिणो (हरी, हरओ, हरउ ) प्र० हरिणो ( हरी )
द्वि०
तृ०
[ ८९
एकवचन बहुवचन अग्गिणो (अग्गओ)
अग्गी
अरिंग
अग्गिणो (अग्गी)
अग्गिणा
अग्गीहि, हि, हिं
अंक (गोद), वानर
अहिव (अधिप ),
(मोक्ष), वसह (वृषभ = बैल), मेह (मेघ), विणय ( विनय ), (बन्दर), वेज्ज (वैध), पासाअ ( प्रासाद), सहाव (स्वभाव), णमोक्कार (नमस्कार), हंस, मूसिअ ( मूषक - चूहा ), सीह (सिंह), गय (गज), आयरिअ (आचार्य), चोर, मोर ( मयूर ), सिगाल ( शृगाल), निव (नृप ), बुह ( बुध), भड (भट = योद्धा), ओटू (ओष्ठ), दंत (दन्त), जण (जन), जीव, पव्वअ (पर्वत), कवोअ ( कपोत = कबूतर ), भमर (भ्रमर ), मंदिर, बालअ (बालक), णर (नर), छत्त (छात्र), कुन्त ( भाला), जर ( ज्वर - बुखार); काय, अवगुण, आवण ( आपण = दुकान), गुण, जम्म, तिलय (तिलक), पोक्खर (तालाब), देस (देश), महुर (मधुर), मुक्ख (मूर्ख), मुल्ल (मूल्य), रंग रत्त ( रक्त), ववहार (व्यापार), विनय, संजम, पंथ ( रास्ता ), पव्वअ (पर्वत), पंडिअ (पण्डित), परिग्गह (परिग्रह) आदि ।
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(ख) चतुर्थी और षष्ठी के रूप एक समान बनते हैं परन्तु कहीं-कहीं संस्कृत के प्रभाव के कारण चतुर्थी एकवचन में 'य' प्रत्ययान्त रूप भी बनते हैं ।
(ग) आकारान्त पुं० गोवा ( गोपा), सोमवा ( सोमपा ) आदि के भी रूप आकारान्त के समान ही होते हैं। पंचमी में हि और तृतीया में एत्व नहीं होता है ।
१. इसी प्रकार सुहि ( सुधी), मुणि (मुनि), समाहि (समाधि), तबस्स ( तपस्विन् ), निहि (निधि), भूवइ ( भूपति - राजा ), गहवइ ( गृहपतिमुखिया ), सेट्ठि ( श्रेष्ठि-सेठ ), हत्थि ( हाथी ), जोगि ( योगी ), दंडि ( दण्डिन् ), अरि (शत्रु), कवि (कपि-बन्दर), करि (करिन् - हाथी), कइ (कवि),
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