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________________ ५२] प्राकृत-दीपिका [दशम अध्याय सुरा य असुरा य = सुरासुरा ( सुरासुरी-देवता और असुर ), मोरो अ हंसो अ वाणरो अ-मोरहंसवाणरा ( मयूरहंसवानराः), जीवा य अजीवा य-जीवाजीवा ( जीवाजीवी ), पुण्णं च पावं च = पुण्णपावाई ( पुण्यपापे ), पतं च पुप्फ च फलं च-पत्तपुप्फफलाणि ( पत्रपुष्पफलानि ), सुहं य दुक्खं य-सुहदुक्खाई ( सुखदुःखे ), जरामरणाइ, देवदानवगंधव्वा, नाणदंसणचरित्ताई। (ख) समाहार दंव--इसमें समस्त पदों से समूह का बोध होता है । अतः समस्त पद सर्वदा नपुसक एकवचन में होता है। जैसे ---णाणं य दंसणं य चरित्तं य एएसि समाहारो=णाणदंसणचरित्तं ( ज्ञानदर्शनचारित्रम् ), असणं अ पाणं अ एएसिं समाहारो--असणपाणं ( अशनपानम् )। (ग) एगसेस दंद-जब समस्त होने वाले पदों में से एक ही पद शेष रहे। इस में लुप्त पद का बोध समस्त पद में प्रयुक्त (वचन संख्या) से होता है । जैसेमाआ य पिआ य त्ति=पिअरा (पितरी), सासू च ससुरो च ति=ससुरा (श्वशुरो), नेतं य नेत्तं य ति नेत्ताई ( नेत्रे ), जिणो अ जिणो अ जिणो अत्ति-जिणा (जिनाः)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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