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५
भिक्षाष्टकम्
पौरुषघ्नी तथाऽपरा ।
सर्वसम्पत्करी चैका वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञैरिति भिक्षा त्रिधोदिता ।। १ ।।
प्रथमा
परमार्थवेत्ताओं द्वारा भिक्षा तीन प्रकार की कही गयी है सर्वसम्पत्करी भिक्षा, द्वितीया पौरुषघ्नी भिक्षा तथा ( तृतीया ) वृत्ति - भिक्षा ॥ १ ॥
यतिर्ध्यानादियुक्तो यो गुर्वाज्ञायां व्यवस्थितः । सदानारम्भिणस्तस्य सर्वसम्पत्करी मता ।। २ ॥
गुरु की आज्ञा में स्थित, निर्दोष आचारवाले तथा सदैव धर्म एवं शुक्ल ध्यान में निरत यति की भिक्षा सर्वसम्पत्करी भिक्षा मानी गयी है ॥ २ ॥
भ्रमरोपमयाऽटतः
विहितेति शुभाशयात् ॥ ३ ॥
वृद्ध, ग्लान, स्थविर, बाल आदि के लिये मधुकर वृत्ति से भ्रमण करते हुए अनासक्त श्रमण द्वारा शुभ भाव से गृहस्थ के और अपने शरीर के उपकार के लिए की गई भिक्षाचर्या सर्वसम्पत्करी भिक्षा है ॥ ३ ॥
वृद्धाद्यर्थमसङ्गस्य गृहिदेहोपकाराय
प्रतिपन्नो
यस्तद्विरोधेन वर्तते ।
प्रव्रज्यां असदारम्भिणस्तस्य
पौरुषघ्नीति कीर्तिता ॥ ४ ॥
जो प्रव्रज्या प्राप्त, किन्तु श्रमणाचार के प्रतिकूल अशोभन आचरण करने वाले वेशधारी श्रमण हैं, उनकी भिक्षाचर्या पौरुषनी कही गयी है ॥ ४ ॥
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