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अष्टकप्रकरणम्
अत एवागमज्ञोऽपि दीक्षादानादिषु ध्रुवम् । क्षमाश्रमणहस्तेनेत्याह सर्वेषु कर्मसु ॥ ५ ॥
इसलिए ( गुणिजनों के अधीन होना मोह के ह्रास का कारण होने से) आगमज्ञाता भी दीक्षा- दान आदि सभी कार्य निश्चित रूप से क्षमाश्रमण के हाथ से ही सम्पादित करायें ॥ ५ ॥
इदं तु यस्य नास्त्येव स नोपायेऽपिवर्तते । भावशुद्धेः स्वपरयोर्गुणाद्यज्ञस्य सा कुतः ॥ ६ ॥
यह गुणिजनों की अधीनता तो जिसे स्वीकार्य नहीं है उसके पास मोह-क्षय का उपाय होने पर भी उसका मोह - क्षय नहीं होता है। आत्म और आत्मव्यतिरिक्त-पर के गुण-दोष को न जानने वाले की भाव-शुद्धि किस प्रकार हो सकती है ।। ६ ॥
तस्मादासन्नभव्यस्य
स्थानमानान्तरज्ञस्य
प्रकृत्याशुद्धचेतसः ।
गुणवद्बहुमानिनः ॥ ७ ॥
औचित्येन प्रवृत्तस्य कुग्रहत्यागतो भृशम् ।
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सर्वत्रागमनिष्ठस्य
इस कारण से आसन्न मोक्षगामी, स्वभाव से शुद्धचित्त, गुणास्पद व्यक्तियों ( आचार्यादि ) के महत्त्व और सम्मान का विशेष रूप से ज्ञाता, गुणियों का अत्यधिक आदर करने वाला, गुण और योग्यता के अनुरूप प्रवृत्त होने वाला, कदाग्रह का अतिशय त्यागी और सर्वत्र सब विषयों में आगमनिष्ठ साधक की ही भावशुद्धि आगमानुसारिणी होती है ।। ७-८ ॥
भावशुद्धिर्यथोदिता ॥ ८ ॥
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