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प्रस्तावना
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दूसरी सदी मानना भी ठीक नही होगा । षट्खण्डागम पर समन्तभद्र की टीका का उल्लेख ऊपर किया है । षट्खण्डागम को रचना दूसरी सदी में हुई थी तथा समन्तभद्र से पहले उस पर कुन्दकुन्द श्यामकुण्ड तथा तुम्बुल्लूर आचार्यों की तीन टीकाएं लिखी जा चुकी थीं ' । अतः इन के बाद के टीकाकार समन्तभद्र का समय पांचवीं सदी के बहुत पहले नही हो सकता । समन्तभद्र के ग्रन्थों में नागार्जुन के माध्यमिककारिकादि ग्रन्थों का प्रभाव स्पष्ट है अतः वे नागार्जुन के समय से - दूसरी सदी से उत्तरवर्ती हैं यह प्रायः निश्चित है । समन्तभद्र के प्रमुख प्रतिपक्षी के रूप में धूर्जटि का उल्लेख पहले किया जा चुका है । हमारी समझ में बौद्ध पण्डित दिग्नाग के शिष्य शंकरस्वामी ही यही धूर्जटि शब्द से विवक्षित हैं जिन का समय पांचवी सदी का पूर्वाध है | अतः समन्तभद्र का समय भी पांचवी सदी ही मानना चाहिए । इस से दक्षिण के शिलालेखों में कुन्दकुन्द, उमास्वाति व बलाक पिच्छ के बाद समन्तभद्र उल्लेख होनारे भी सुसंगत सिद्ध होता है ।
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११. सिद्धसेन - नयवाद के विस्तृत व्याख्याकार तथा आगमिक विषयों के स्वतन्त्र विचारक के रूप में सिद्धसेन का स्थान महत्त्वपूर्ण है । कथाओं के अनुसार सिद्धसेन का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था । मुकुन्द ऋषि - जिन का उपनाम वृद्धवादी था - के प्रभाव से वे जैन संघ में दीक्षित हुए थे । उन्हों ने आगमों का संस्कृत रूपान्तर करने का प्रयास किया किन्तु साधुसंघ के निषेध के कारण वह कार्य पूरा नही हो सका । उज्जयिनी के महाकाल मन्दिर में शिवलिंग से पार्श्वनाथमूर्ति प्रकट करने का चमत्कार उन की जीवनकथा का प्रमुख भाग है" । इसी प्रसंग से
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१) धवला भा. १ प्रस्तावना पृ. ४६ - ५३ में डॉ. हीरालाल जैन, २) अनेकान्त ७ पृ. १० में पं. दरबारीलाल जैन. ३) जैन शिलालेखसंग्रह भा. १ प्रस्तावना पृ. १२९ - १४०. ४) कथावली, प्रबन्धकोष, प्रबन्धचिन्तामणि, प्रभावकचरित तथा विविधतीर्थकल्प में सिद्धसेन की कथाएं आती हैं । इन के सारांश तथा चर्चा के लिए सन्मति के गुजराती अनुवाद की प्रस्तावना द्रष्टव्य है । ५) कल्याणमन्दिरस्तोत्र की रचनासे इस घटना का सम्बन्ध जोड़ा गया है किन्तु वह उचित नही क्यों कि कल्याणमन्दिर कुमुदचन्द्र की कृति है ।
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