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________________ ४० विश्वतत्त्वप्रकाशः के अनुरूप नही है तथा अकलंक ने आप्तमीमांसा की टीका में इस का निर्देश नही किया है अतः इस श्लोक से समन्तभद्र के समय का निर्णय करना उचित नही है । दूसरी ओर जैनेन्द्र व्याकरण में समन्तभद्र का उल्लेख होना स्पष्ट करता है कि वे पूज्यपाद से पूर्ववर्ती हैं । पूज्यपाद से पहले सिद्धसेन हुए हैं और सिद्धसेन ने अपनी पहली द्वात्रिंशिका में 'सर्वज्ञपरीक्षणक्षम ' आचार्यों की प्रसन्नता' का उल्लेख इन शब्दों में किया है- य एष षड्जीवनिकायविस्तर: परैरनालीढपथस्त्वयोदितः । अनेन सर्वज्ञपरीक्षणक्षमाः त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः ॥१३॥ इस में समन्तभद्र के स्वयम्भूस्तोत्र के निम्न पद्यों का प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है बहिरन्तरप्युभयथा च करणमविघाति नार्थकृत् । नाथ युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलामलकवद् विवेदिथ ॥१२९|| अत एव ते बुधनुतस्य चरितगुणमद्भुतोदयम् । न्यायविहितमवधार्य जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयम् ||१३०॥ इस को देखते हुए सिद्धसेन का सर्वज्ञपरीक्षणक्षम यह विशेषण समन्तभद्र का ही सूचक है यह मानना होगा। जैन साहित्य में सर्वज्ञ की परीक्षा का उपक्रम समन्तभद्र ने ही किया है यह तथ्य सुविदित है। ऐसी स्थिति में समन्तभद्र पूज्यपाद और सिद्धसेन दोनों से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। पूज्यपाद का समय छठी सदी है यह आगे स्पष्ट किया जायगा। तदनुसार समन्तभद्र का समय पांचवी सदी के बाद का नही हो सकता। दूसरी ओर पट्टावलियों के आधार पर अथवा बहुत बाद के शिलालेखों में आचार्यों का क्रम देख कर समन्तभद्र का समय पहली - १) अनेकान्त व. ९ पृ. ४५४; समन्तभद्र का अन्तर्भाव दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों की पट्टावलियों में किया गया है। २) अनेकान्त व. १४ पृ. ३. में पं. जुगलकिशोर मुख्तार । गंगराज्यस्थापक सिंहनदि के पूर्व होने के कारण यहां समन्त भद्र को पहली सदी का माना गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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