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________________ -९१] बौद्धदर्शनविचारः कस्मात् तथार्थस्यावाच्यत्वात् । तथा वाकायकर्मान्तायामाजीवस्थितीनां क्षणिकपक्षे अत्यन्ताभाव एव । यदन्यदवादीत्-समाधिर्नाम सर्व दुःखं सर्व क्षणिकं सर्व निरात्मकं सर्व शून्यमिति चतुरार्यसत्यभावनेति-तदप्यसमञ्जसम् । तस्याः मिथ्यात्वेन सत्यभावनात्वानुपपत्तेः। कुतः सर्वस्य क्षणिकत्वनिरात्मकत्वशून्यत्वासंभवस्य प्रागेव प्रमाणैः समर्थितत्वात्। तथा च भावनाप्रकर्षादविद्यातृष्णाविनाशे निरास्त्रवचित्तक्षणाः सकलपदार्थावभासकाः समुत्पद्यन्त इत्येतद वन्ध्यासुतात् सकलचक्रवर्तिनः समुत्पद्यन्त इत्युक्तिमनुहरति । यदप्यन्यदभ्यधायि-उभे सत्ये समाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना लोकसंवृतिसत्यं च सत्यं च परमार्थत इति-तदप्ययुक्तम् । तदुपदेशस्य परमार्थसत्यत्वानुपपत्तेः। कुतः तन्मते परमार्थभूतानां स्वलक्षणानां सकलवाग्गोचरातिकान्तत्वात् । तथा च बुद्धोपदेशात् प्रेक्षापूर्वकारिणां प्रवृत्तिर्न जाघटयते । यदप्यब्रवीत्-आयुरवसाने प्रदीप निर्वाणोपमं निर्वाणं भवति उत्तरचित्तस्योत्पत्तेरभावादिति-तदप्यसत् । अन्त्यचित्तक्षणस्यार्थक्रियाशन्यत्वेनासत्त्वप्रसंगात् । तस्यासत्त्वे तत्पूर्वक्षणस्याप्यर्थक्रियारहितत्वेनासत्त्वम् , तत एव तत्पूर्वक्षणानामप्यसत्त्वेन अन्तर्व्यायाम, आजीव स्थिति ये सब अंग भी क्षणिक पदार्थ में सम्भव नही हैं। यह सब जगत शन्य, निरात्मक, क्षणिक नही है यह पहले स्पष्ट किया है अत: ऐसी भावना को-समाधि को मोक्ष का मार्ग कहना ठीक नही । जब ऐसी मिध्याभावना से मोक्ष ही सम्भव नही तब तदनंतर वे चित्तक्षण सब पदार्थों को जानते हैं यह कहना व्यर्थ ही है । बुद्धोंका उपदेश लोकव्यवहार सत्य तथा परमार्थतः सत्य पर आधारित होता है-यह कथन भी ठीक नही। बौद्ध मत में परमार्थभूत-वास्तविक-स्वलक्षणों को शब्द के अगोचर माना है फिर बुद्ध परमार्थ सत्य का उपदेश कैसे दे सकते है ? उपदेश ही सम्भव न होनेसे मोक्षविषयक प्रवृत्ति भी सम्भव नही है। दीप बुझने के समान आत्मा के निर्वाण की कल्पना भी अनुचित है। यदि अन्तिम चित्तक्षण के बाद कोई चित्तक्षण उत्पन्न नहीं होता तो यह अन्तिम चित्तक्षण कार्य रहित-अर्थक्रियार हित-होता है अतः वह असत् होगा । यदि अन्तिम चित्तक्षण असत् है तो उसके पहले का चित्तक्षण भी कार्यरहित अतएव असत् सिद्ध होता है-इस तरह पूर्व-पूर्वके सभी चित्तक्षण असत् होंगे । अतः सब शन्य मानने का यह मत युक्त नही वि.त.२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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