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________________ ३०४ त्वप्रकाश [९१ [ ९१. निर्वाणमार्गनिरासः।] तदयुक्तम् । तन्मते अनुष्ठातुरपवर्गप्राप्तेरसंभवात् । कुतः तस्यक्षणिकत्वेन तदानीमेव विनष्टत्वात् । यदप्यन्यदवोचत्-सम्यक्त्वं नाम पदार्थानां याथात्म्यदर्शनमिति-तदसत् । तदुक्तःप्रकारेण पदार्थयाथात्म्यदर्शनानुपपत्तेः प्रागेव समर्थितत्वात्। यदप्यन्यदवादीत्-संशावाचकः शब्द इति-तदप्ययुक्तम्। तन्मते शब्दस्यार्थवाचकत्वाभावात् । ननु अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां न वस्तुविधिनोपलभ्यत इति वचनात् शब्द इति तदयुक्तम्। तन्मते शब्दस्यार्थवाचकत्वाभावस्यापोहवाचकत्वमस्तीति चेन्न।। सकलशब्दानामपोहवाचकत्वे उत्तमवृद्धेनोपदिष्टं वाक्यं श्रुत्वा मध्यमवृद्धस्य बाह्ये अर्थे प्रवृत्तिव्यवहारानुपपत्तः। कुतः शब्दश्रवणादिष्टानिष्टवस्तुप्रतिपत्तेरभावात् । संकेतानुपपत्तिश्च अपोहस्याभावरूपत्वाविशेषात् । अस्य शब्दस्यायमर्थो वाच्य इति संकेतयितुमुपायाभावात् । तस्मात् संशा पाचकः शब्द इत्ययुक्तम्। तथा संशी वाच्योऽर्थ इत्यप्ययुक्तम्। ९१. निर्वाण मार्ग का निरास-बौद्ध मत का यह निर्वाणमार्ग का विवरण परस्पर विरुद्ध है । पहला दोष तो यह है कि इस मार्ग का अनुष्ठान करनेवाला सम्भव नही है-बौद्ध मत में सब पदार्थों को क्षणिक माना है तथा क्षणिक जीव ऐसे मार्ग का अनुष्ठान नही कर सकता । बौद्धों का स्कंध आदि पदार्थों का वर्णन अयोग्य है यह पहले स्पष्ट किया है । अतः उन के मत में सम्यक्त्व भी सम्भव नही। संज्ञा और संज्ञी का कथन भी बौद्ध मत में उचित नही क्यों कि वे शब्द को अर्थ का वाचक नही मानते । उन का कथन है किसी शब्द से वस्तु का विधि-ज्ञान नहीं होता, शब्द और लिंग से अन्यवस्तुओं का अपोह होता है ( दूसरी सब वस्तुओं का निषेध यही किसी वस्तु के शब्द द्वारा बतलाने का प्रकार है) किन्तु यदि सब शब्द अपोह-वाचक हों ( दूसरी वस्तुओं के निषेधक ही हों) तो गुरु के शब्द सुनकर शिष्य किसी बाह्य पदार्थ के विषय में प्रवृत्ति नही कर सकेंगे--गुरु के शब्द सुननेपर उन्हें किसी इष्ट या अनिष्ट वस्तु का बोध नही होता, सिर्फ अन्य वस्तुओं का निषेध होता है, अतः वे प्रवृत्ति नही कर पायेंगे । इस शब्द का यह अर्थ है यह संकेत अपोहवाद में सम्भव नही । अतः संज्ञा तथा संज्ञी का कथन बौद्ध मत के प्रतिकूल सिद्ध होता है । वाणी तथा शरीर के कर्म, । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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