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________________ - ९० ] बौद्धदर्शनविचारः ३०३ तद् योगिप्रत्यक्षम् । स च योगी यावदायुस्तावत्कालमुपासकानां धर्ममुपदिशंस्तिष्ठति । तदुक्तम् उमे सत्ये समाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना । लोकसंवृतिसत्यं च सत्यं च परमार्थतः ॥ ( माध्यमिककारिका २४-८) निर्वाणेऽपि परिप्राप्ते दयार्द्रीकृतचेतसः । तिष्ठन्त्येव पराधीना येषां तु महती कृपा ॥ ( प्रमाणवार्तिक २-१९९) इति । आयुरवसाने प्रदीपनिर्वाणोपमं निर्वाणं भवति । उत्तरचित्तस्योत्पत्तेरभावात् । तद्युक्तम् दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपैति नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपैति नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद् विदिशं न कांचिन् मोहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ ( सौन्दरनन्द १६ - २८, २९ ) इति सौगतः पुनरप्यचूचुदत् । 1 प्राणधारण करना यह आजीवस्थिति नामक सातवां अंग है । यह सब दुःखमय, क्षणिक, निरात्मक, शून्य है इस प्रकार चार आर्य सत्यों की भावना करना यह समाधि नामक आठवां अंग है । समाधि के प्रकर्ष से अविद्या और तृष्णा का विनाश होता है तथा निरास्रव चित्तक्षण उत्पन्न होते हैं । यही योगि प्रत्यक्ष है जो सब पदार्थों को जानता है । ये योगी आयु की समाप्ति तक उपासकों को धर्म का उपदेश देते हैं । कहा भी है- 'बुद्धों का धर्मोपदेश दो प्रकार के सत्योंपर आधारित है - लोकव्यवहार का सत्य तथा परमार्थतः सत्य । निर्वाण प्राप्त होनेपर भी जिनका चित्त दयार्द्र होता है तथा जो महती कृपा से युक्त हैं वे ( उपदेश के लिए ) जीवित रहते ही हैं।' आयु के अन्त में उत्तरकालीन चित्त की उत्पत्ति नही होती अतः दीप के बुझने के समान चित्तसन्तति का निर्वाण होता है। कहा भी है - 'जिस तरह दीपक बुझता है वह न पृथ्वी में जाता है, न आकाश मे जाता है, दिशा या विदिशा में नही जाता है, सिर्फ स्नेह (तेल) के खतम होने से शान्त हो जाता है; उसी तरह जीव का निर्वाण होता है उस समय वह न पृथ्वी में जाता है, न आकाश में जाता है, दिशा या विदिशा में नही जाता है, सिर्फ मोह के खतम होने से शान्त हो जाता है ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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