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२८२ विश्वतत्त्वप्रकाशः
[ ८५तत्र व्यक्तं महदादि, अव्यक्तम् प्रधानं । तथा
त्रिगुणमविवेकि विषयः सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि। व्यक्तं तथा प्रधानं तदविपरीतस्तथा च पुमान् ॥
( सांख्यकारिका ११) तस्माच्च विपर्यासात् सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । कैवल्यं माध्यस्थ्यं दृष्तृत्वमकर्तृभावश्च ॥ (सांख्यकारिका १९) तथा अकर्ता निर्गुणः शुद्धो नित्यः सर्वगतोऽक्रियः। अमूर्तश्चेतनो भोक्ता ह्यात्मा कपिलशासने ॥
[उद्धृत न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ११२] इति च । एवं प्रकृतिपुरुषयोर्भेदविज्ञानात् प्रकृतिनिवृत्तौ पुरुषस्य स्वरूप. मात्रावस्थानलक्षणो मोक्ष इति चेन्न ।
व्यक्ताव्यक्तयोस्तदुक्तयुक्त्या असंभवस्य प्रागेव प्रमाणैः समर्थितत्वात् । तथा पुरुषस्यापि संसारावस्थायामिच्छाद्वेषप्रयत्नैरिष्ठस्वीकारादनिष्टपरिहारात् कर्तृत्वमस्त्येवेति प्रागेव समर्थितम् । मुक्त्यवस्थायां तदभावाकर्तृत्वमस्तु, तत्र न विप्रतिपद्यामहे। तथा बुद्ध्यादीनामात्मगुणत्वेन से उद्भूत, अनित्य, अव्यापक, सक्रिय, अनेक, आश्रित, गमक, परतन्त्र तथा अवयवसहित होते हैं । अव्यक्त का स्वरूप इस के विपरीत है। व्यक्त तथा अव्यक्तके सामान्य स्वरूप इस प्रकार हैं-वे तीन गुणों से बने हैं. विवेकर हित हैं, विषय हैं, सामान्य हैं, अचेतन हैं, निर्माण करते हैं । पुरुष इन से भिन्न है । पुरुष की इस भिन्नता से उस का साक्षी, केवल एक, मध्यस्थ, द्रष्टा तथा अकर्ता होना सिद्ध होता है। कपिल के मत में आत्मा अकर्ता, निर्गुण, शुद्ध, नित्य, सर्वगत, निष्किय, अमूर्त, चेतन तथा भोक्ता माना है ।' इस प्रकार प्रकृति और पुरुष के भेद का ज्ञान होनेपर प्रकृति निवृत्त होती है तथा पुरुष अपने स्वरूप में स्थित मुक्ति प्राप्त करता है।
सांख्य मत को यह सब प्रक्रिया जिस व्यक्त-अव्यक्त तत्त्ववर्णन पर आधारित है उसका निरसन पहले ही किया है । अतः यह प्रक्रिया भी निराधार सिद्ध होती है। इसमें आत्मा को अकर्ता कहा है यह भी ठीक नही है । मुक्त अवस्था में आत्मा के इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, आदि नही
१ सत्त्वं रजस्तमः । २ उत्पत्तिमत् । ३ इच्छाद्वेषादीनामभावः अकर्तृत्वमात्मनोऽस्तु।
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