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________________ -८५] सांख्यदर्शनविचारः २८३ प्रागेव प्रबन्धेन समर्थितत्वादात्मनो निर्गुणत्वमप्यसिद्धमेव । तथा शुद्ध त्वमप्यात्मनो मुक्तावस्थायां भवेदेव । संसारावस्थायांपुनरवलोह विलिप्तसुवर्णवदात्मनः कर्मविलिप्तत्वादशुद्धत्वमेव । ननु कमविलेपः प्रकृतितत्वस्यैव न पुरुषस्येति कथं पुरुषस्याशुद्धत्वमिति चेन्न । प्रकृतितत्त्वस्यैव कर्मविलेपस्तत्फलभोगस्तत्क्षयात् मोक्षश्च यदि स्यात् तर्हि पुरुषकल्पनावेयर्थ्यप्रसंगात् । - ननु प्रकृतितत्त्वस्याचेतनत्वाद् भोक्तृत्वं नोपपनीपद्यते । अपि तु इन्द्रियाण्यर्थमालोचयन्ति, इन्द्रियालोचितमर्थ मनः संकल्पयति, मन:संकल्पितमर्थ बुद्धिरध्यवस्यति, बुद्धयध्यवसितमर्थमहंकारोऽनुमन्यते, अहंकारानुमितार्थ पुरुषश्चतयते । तथा चोक्तम् विविक्ते दृक्परिणती बुद्धौ भोगोऽस्य कथ्यते । प्रतिबिम्बोदयः स्वच्छे यथा चन्द्रमसोऽम्भसि ॥ __[आसुरि] होते अतः वह अकर्ता होता है, किन्तु संसारी अवस्था में इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, इष्ट का स्वीकार, अनिष्ट का परिहार आदि होनेसे आत्मा को कर्ता मानना आवश्यक है । इसी प्रकार बुद्धि आदि आत्माके गुण हैं यह पहले स्पष्ट किया है अतः आत्मा को निर्गण कहना उचित नही । आत्मा को शुद्ध कहना भी मुक्त अवस्था में ही उचित है । संसारी अवस्था में वह मलयुक्त सुवर्ण के समान कर्मरूपी मल से युक्त-अतएव अशुद्ध होता है । सांख्यों के मत में कर्मोका लेप प्रकृति को ही माना है। किन्तु कर्मों से प्रकृति के लिप्त होने पर कर्मों का फल भी प्रकृति को ही मिलेगा तथा कर्मों के क्षय होने पर मोक्ष भी प्रकृतिको ही मिलेगा। इस से पुरुष का अस्तित्व मानना ही व्यर्थ सिद्ध होगा । इस पर सांख्यों का कहना है कि प्रकृति अचेतन है अतःवह भोक्ता नही हो सकती-पुरुष चेतन है अतः भोक्ता होता है। उनके मतानुसार इन्द्रियों से पदार्थों का आलोकन होता है, इस आलोकन से मन संकल्प करता है, मन के संकल्प पर बुद्धि निश्चय करती है, इस निश्चय को अहंकार अनुमति देता है तथा तदनंतर उस का उपयोग १ किद्रिकादि । २ आत्मनः । ३ पदार्थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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