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________________ २७८ विश्वतत्त्वप्रकाशः [ ८४तथा हि । वीतं पटादिकार्य तन्त्वादिकारणशक्तिरूपेण नावतिष्ठते द्रव्यत्वात् परमाणुवत् । तथा तन्त्वादिकारणानां शक्तिः पटादिरूपेण नाभिव्यज्यते गुणत्वात् गन्धादिवदिति । तथा तन्त्वादिकारणशक्तिः पटादिकार्यद्रव्यरूपेण नाभिव्यज्यते तद्रूपेणासत्त्वात् कालादिवदिति च । ननु तन्त्वादिकारणशक्तेः पटादिकार्यद्रव्यरूपेणासत्त्वमसिद्धमिति चेन्न । तन्त्वादिकारणशक्तिः पटादिकार्यद्रव्यरूपेण न संभवति कारणधर्मत्वात् तन्त्वादिजातिवदिति प्रमाणसद्भावात् । तथा वीतं पटादिकार्यद्रव्यं तन्त्वादि कारणशक्तिरूपेण नासीत् अस्मदादीन्द्रियग्राह्यत्वात् चन्द्रविम्बादिवदिति च । शक्तिः पटो न भवति पटः शक्तिर्न भवतीति परस्परव्यावृत्तत्वाच्च तन्त्वादिकारणशक्तेः पटादिकार्यद्रव्यरूपेणासस्वसिद्धिः । किं च । कुविन्दशक्तिः पटरूपेणाभिव्यज्यते तन्तुशक्तिः पटरूपेणाभिव्यज्यते तुरीवेमशलाकादिशक्तिर्वा पटरूपेणाभिव्यज्यते । न तावदाद्यो विकल्पः । कुविन्दशक्तिः पटरूपेण नाभिव्यज्यते चिच्छक्तित्वात् कुविन्दधर्मत्वात् स्पर्शादिरहित्तत्वात् अद्रव्यत्वात् कुविन्दवित्तिवदिति प्रमाणैर्बाधितत्वात् । नापि द्वितीयः पक्षः । तन्तुशक्तिः पटरूपेण नाभिव्यज्यते तन्तुधर्मत्वात् अद्रव्यत्वात् स्पर्शादिरहितत्वात् तन्तुत्वजातिवदिति प्रमाणैर्बाधितत्वात् । आदि द्रव्य हैं अतः वे तन्तु की शक्ति के रूप में नहीं रह सकते । तथा तन्तु की शक्ति गुण है अतः वह वस्त्र आदि द्रव्यों के रूप में नही रह सकती । तन्तु-शक्ति वस्त्ररूप नही है अतः वह वस्त्ररूप में अभिव्यक्त भी नही होती । तन्तु में विद्यमान शक्ति तन्तुरूप कारण का धर्म है अतः वह पटरूप कार्य नहीं हो सकती । दूसरे, वस्त्र आदि बाह्य इन्द्रियों से ग्राह्य हैं अतः यदि तन्तु के शक्ति रूप में वस्त्र विद्यमान होता तो वह भी बाह्य इन्द्रियों से ज्ञात होता, ऐसा होता नही है, अतः शक्ति और वस्त्र ये दो भिन्न वस्तुएँ हैं । इसी का विचार प्रकारान्तर से भी हो सकता है । वस्त्र रूप कार्य की उप्तत्ति तीन प्रकार के कारणों से होती है - तन्तु आदि उपादान, बुनकर आदि निमित्त तथा तन्तु - संयोग आदि सहकारी कारण होते हैं । इन में तन्तु की शक्ति वस्त्ररूप से व्यक्त होती है, बुनकर की शक्ति व्यक्त होती है या करघे आदि की शक्ति व्यक्त होती है ? इन में बुनकर की शक्ति तो चैतन्य का गुण है, वह द्रव्य नही है, स्पर्श आदि से रहित है अतः वह वस्त्ररूप में व्यक्त नही हो सकती । इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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