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________________ -८४] सांख्यदर्शनविचारः २७७ तदप्यसत् । हेतोराश्रयासिद्धत्वात् । कुतः नोत्पद्यत इति धर्मिणः प्रतिषिद्धत्वेन प्रमाणगोचरत्वाभावात् । धर्मिणः प्रमाणगोचरत्वाङ्गीकारे अविद्यमानत्वादिति हेतुः स्वरूपासिद्ध एव स्यात् । खरविषाणवदित्यत्र अत्यन्ताभावो दृष्टान्तत्वेनोपादीयते खरमस्तकस्थविषाणं वा। प्रथमपक्षे साधनविकलो दृष्टान्तः। अत्यन्ताभावस्य सर्वदा विद्यमानत्वात् । द्वितीयपक्षे आश्रयहीनो दृष्टान्तः। कथम् । खरमस्तके विषाणस्य त्रिकालेऽप्यसत्त्वात् । _ यदप्यन्यदब्रवीत्-तस्माच्छक्तिरूपेण विद्यमानकार्यस्य पश्चाद् व्यक्तिरूपं भवतीति-तदप्यसमञ्जसम् । पटादिकार्यस्य शक्तिरूपेणावस्थानासंभवात् । तथा हि। पटादिकार्य कस्य शक्तिरूपेणावतिष्ठते। उत्पत्स्यमानपटादिकार्यशक्तिरूपेण तन्त्वादिकारणशक्तिरूपेण वा। न तावदाद्यो विकल्पः। उत्पत्स्यमानपटादेरद्यापि स्वरूपलाभाभावेन पटादिकार्यस्य तच्छक्तिरूपेणावस्थानायोगात् ।। अथ तन्वादिकारणशक्तिरूपेणावतिष्ठते इति चेन्न । पटादिकार्यद्रव्यस्य तन्त्वादिकारणशक्तिरूपेणावस्थानुपपत्तेः। कार्य उत्पन्न होता है। तन्तु न हों तो वस्त्र नही होता - ऐसा सम्बन्ध बारबार देखने से ही तन्तु वस्त्र के कारण हैं यह निश्चय होता है । सांख्य मत में भी वस्त्र के व्यक्त होने के कारण तन्तु है इस का निश्चय इसी प्रकार होता है। दूसरी बात यह है कि प्रस्तुत अनुमान में गधे के सींग का उदाहरण उपयोगी नही है। गधे के सींग का कभी अस्तित्व नही होता - सर्वदा अत्यन्त अभाव होता है - अतः उस का दृष्टान्त दे कर किसी कार्य का अभाव सिद्ध करना सम्भव नही। कार्य पहले शक्ति-रूप में विद्यमान होता है --- बाद में व्यक्तिरूप प्राप्त करता है यह कथन भी अनुचित है। वस्त्ररूप कार्य किस के शक्तिरूप से विद्यमान होता है - वस्त्र के कार्य-शक्ति-रूप में या तन्तुओं के कारण-शक्ति-रूप में ! इन में पहला पक्ष सम्भव नही - जो वस्त्र अभी अपने स्वरूप को प्राप्त ही नही हुआ है वह उस के शक्तिरूप में है यह कैसे कहा जा सकेगा ? दूसरा पक्ष भी सम्भव नही --- वस्त्र आदि कार्य द्रव्य तन्तुओं के कारण-शक्ति-रूप में अवस्थित नहीं हो सकते। वस्त्र १ वीतं कार्य नोत्पद्यते इति निषिद्धत्वम् अभावत्वं नास्तिरूपम् अविद्यमानत्वात् इति हेतुर्न उत्पद्यते इति धर्मिणि निषेधरूपत्वे न प्रवर्तते अतः आश्रयासिद्धः। २ तन्त्वादिशक्तिस्तु गुणः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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