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________________ समवायविचारः २१७ दयुतसिद्धत्वासंभवात् । तथा हि । अवयवास्तन्तवः अंशुभ्यो निष्पन्नाः अवयवी पटस्तन्तुभ्यो निष्पन्नः इति अवयवावयविनोः पृथग् निष्पन्नत्वेन युतसिद्धत्वादयुतसिद्धत्वासंभव एव । तथा पटे रूपादयो गुणाः समवायिकारणात् पटात् असमवायिकारणेभ्यस्तन्तुगतरूपादिभ्यः कुविन्दकरव्यापारादिनिमित्तकारणाच्च निष्पन्नाः । पटादयो गुणिनोऽपि समवायिकारणेभ्यस्तन्तुभ्यः असमवायिकारणेभ्यस्तन्तूनामातान वितान रूपविशिष्ट - संयोगेभ्यः कुविन्दकव्यापारनिमित्तकारणाच्च निष्पन्नाः । इति गुणगुणिनोः पृथग् निष्पन्नत्वेन युतसिद्धत्वाभावादयुत सिद्धत्वासंभव एव स्यात् । तथा सत्तादिसामान्यानां नित्यत्वेन सिद्धत्वात् द्रव्यादिविशेपाणां स्वकारणकलापानिष्पन्नत्वाच्च सामान्यविशेषयोरपि पृथक् निष्पअत्वेन युतसिद्धत्वात् अयुतसिद्धत्वासंभव एव स्यात् । तथा पटाद्यसर्वमतद्रव्यं तन्त्वाद्युपादानकारणादिना समुत्पद्यते पटादीनां क्रिया च पटाधुपादानकारणादिना समुत्पद्यत इति क्रियातद्वतोरपि पृथग् निष्पन्नत्वेन युतसिद्धत्वादयुतसिद्धत्वासंभव एव स्यात् इति । किं च । अवयवावयविभिन्नदेशभिन्नकालभिन्नकर्तृभिन्नोपादानादिकारणैर्निष्पन्नत्वाद् -६४] प्रभृतीनां जो कारण है वही समवाय सम्बन्ध है । किन्तु यह लक्षण भी सदोष है। प्रश्न होता है कि अयुतसिद्ध पदार्थ किन्हें कहा जाय ? जो अलग सिद्ध हैं वे युतसिद्ध हैं, जो अलग सिद्ध नही हैं वे अयुत सिद्ध हैं, यह कथन ठीक नही । गुण, गुणी, अवयव, अत्रयवी, सामान्य, विशेष तथा क्रिया, क्रियावान्, ये पृथक-पृथक निष्पन्न होते हैं तब उन्हें अयुतसिद्ध कैसे कहा जाय ? वस्त्र अवयवी है वह तन्तुओं से बनता है, तन्तु अवयव हैं वे अंशुओं (रेशों) से बनते हैं. अतः इन की निष्पत्ति भिन्न भिन्न है । इसी प्रकार व गुणी है वह तन्तुओं से बना है तथा रूप आदि गुण हैं वे तन्तुओं के रूप आदि गुणों से बने हैं - अतः गुण और गुणी की निष्पत्ति भी भिन्न भिन्न है । इसी प्रकार सत्ता आदि सामान्य तो नित्य माने हैं तथा द्रव्य आदि विशेष अपने अपने कारणों से उत्पन्न माने हैं - अतः सामान्य और विशेष की निष्पत्ति भी भिन्न भिन्न है । इसी प्रकार चत्र क्रियावान् है वह तन्तुओं से उत्पन्न हुआ है तथा वस्त्र की क्रिया चत्र से उत्पन्न हुई है - अतः क्रिया और क्रियावान की निष्पत्ति भी भिन्न भिन्न है । तात्पर्य - अवयव, अवयत्री आदि को अयुतसिद्ध कहना योग्य I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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