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________________ २१६ विश्वतत्त्वप्रकाशः [६४संबन्धातरेण संबद्धं सत् स्वसंबन्धिषु प्रवर्तत इत्यनषस्था स्यात् । अथ समवायः समवायिभ्यां स्वतः संबद्धः एव प्रवर्तत इति चेत् तर्हि यथा समवायः समवायिषु स्वतः संबद्ध एव प्रवर्तत इति परिकल्प्यते तथा अवयवेषु अवयविन: गुणिषु गुणाः विशेषेषु सामान्यानि असर्वगतद्रव्येषु क्रियाश्च स्वत एव संबद्धाः प्रवर्तेरन् । किं समवायपरिकल्पनया प्रयोजनम् । प्रयोगश्च । अवयविगुणसामान्यक्रियाः स्वाश्रयेषु स्वतः संबद्धा एव प्रवर्तन्ते आश्रितत्वात् परतन्त्रैकरूपत्वात् समवायवदिति अवयवावयवि प्रभृतीनामन्यनिरपेक्षतया स्वभावसंबन्धःप्रमाणसिद्धः स्यात् । ननु 'अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां य इहेदं प्रत्ययहेतुः संबन्धः स समवायः' ( प्रशस्तपादभाष्य पृ. ५८)। इति लक्षणलक्षितत्वात् समकायोऽस्तीत्यूरीकर्तव्यमिति चेत् न । तल्लक्षणस्य विचार्यमाणे असंभवदोषदुष्टत्वात् । तथा हि । अयुतसिद्धानममिति कोऽर्थः। ननु पृथक् सिद्धाः युतसिद्धा इत्युच्यन्ते, अपृथक् सिद्धा अयुतसिद्धा इति कथ्यन्ते तेषामयुतसिद्धानां संबन्धः समवाय इति चेन्न । अवयवावयविनोर्गुणगुणिनोः सामान्यविशेषयोः क्रियातद्वतोः पृथक् पृथक् निष्पन्नत्वेन युतसिद्धत्वाअसम्बद्ध हैं वैसे ही समवाय और अवयव आदि होंगे। यदि यह सम्बद्ध है तो स्वतः सम्बद्ध है या किसी दूसरे सम्बन्ध से सम्बद्ध है ? यदि दूसरे सम्बन्ध से सम्बद्ध हो तो उस दूसरे सम्बन्ध का समवाय से सम्बन्ध होने के लिए तीसरा सम्बन्ध मानना होगा तथा तीसरे सम्बन्ध का सम्बन्ध होने के लिए चौथा सम्ब ध मानना होगा - यह अनवस्था दोष है। यदि समवाय का अवयव आदि से स्वतः सम्बन्ध मानें तो अवयव और अवयवी में, गुण और गुणी में, विशेष और सामान्य में तथा क्रिया और क्रियावान् में ही स्वतः सम्बन्ध मानने में क्या दोष है ? जैसे समवाय को आश्रित, परतन्त्र माना है वैसे ही गुण आदि को आश्रित, परतन्त्र मानने से कार्य हो जाता है। अतः अवयव, अवयवी आदि का सम्बन्ध स्वभावतः ही मानना चाहिए - समवाय पर अवलम्बित नही मानना चाहिए। समवाय का लक्षण वैशेषिक मत में इस प्रकार दिया है-आधार्य तथा आधारभूत अयुत सिद्ध पदार्थों में जो सम्बन्ध है, 'इस में यह है' इस प्रतीति १ अवयवगुणिविशेषासर्वगतद्रव्येषु । २ समवायनिरपेक्षतया।३ इह तन्तुषु अयं पटः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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