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२०२ विश्वतत्त्वप्रकाशः
[५९दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात् । आत्मनो विभुत्वाभावस्येदानीमेव प्रमाणतः समर्थितत्वात् । किं च । मनोद्रव्यस्य विभत्वे आत्ममनःसंयोगस्य इन्द्रियान्तःकरणसंयोगस्यापि सर्वदा सदभावात् बुद्धधादिकं सर्व सर्वदा स्यात् । न चैवम् । तस्मान्मनो विभु न भवति द्रव्यत्वावान्तरसामान्यवस्वात् शरीरवत् , ज्ञानासमवाय्याश्रयत्वात् आत्भवदिति । ननु आत्मनो विभुत्वात् दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वमिति चेन्न । प्रागनन्तरमेवानेकप्रमाणरात्मनोऽसर्वगतत्वस्य समार्थितत्वात् । [ ५९. आत्मनः असर्वगतत्वसमर्थनम् । ]
तथात्मा असर्वगतः स्यात् क्रियावत्वात् परमाणुवदिति । ननु आत्मनो विभुत्वात् क्रियावत्त्वमसिद्धमिति चेन्न । तदविभुत्वग्राहकप्रमाणानां प्रागेव निराकृतत्वात्। तस्यैव स्वर्गनरकादिगमनसमर्थनेन क्रियावत्वस्यापि निरूपितत्वाच्च । ननु आत्मनोऽसर्वगतत्वे अनित्यत्वं प्रसज्यते । तथा हि। वादी ( जैनों ) को मान्य नही अत: यह अनुमान सदोष है। मन ज्ञान का असमवायी आश्रय है अतः आत्मा के समान व्यापक है यह अनुमान भी ठीक नही । आत्मा व्यापक नही यही अबतक सिद्ध कर रहे हैं अतः उस के उदाहरण से मन को व्यापक कहना युक्त नही। मन को व्यापक मानने में अन्य दोष भी हैं। यदि मन व्यापक है तो आत्मा और मन का संयोग तथा मन और इन्द्रियों का संयोग सर्वदा होना चाहिए - तदनुसार बुद्धि आदि का कार्य सर्वदा होना चाहिए। किन्तु ऐसा होता नही है । द्रव्यत्व से भिन्न सामान्य ( मनस्त्व ) से युक्त होना एवं ज्ञान का असमवायी आश्रय होना ये मन के व्यापक न होने के प्रमाण हैं। अतः मन अव्यापक सिद्ध होता है।
५९. आत्मा सर्वगत नहीं है-आत्मा के सर्वगत न होने का प्रकारान्तर से भी समर्थन करते हैं। आत्मा क्रियायुक्त है - स्वर्ग, नरक आदि में गमन करता है --- अतः परमाणु के समान वह भी असर्वगत है । आत्मा व्यापक है अतः क्रियायुक्त नही यह कथन ठीक नही - आत्मा व्यापक नही है यही अब तक सिद्ध कर रहे हैं। आत्मा को
१ यथा आत्मना सह मनः संयोगि तथा अन्येन्द्रियाण्यपि इति मनसः नित्यत्वे सति अन्पेन्द्रियाणामपि नित्यत्वमस्तु को विरोधः।
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