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________________ १२४ विश्वतत्त्वप्रकाशः [४१शानं जडं नीलाद्याकारधारित्वात् पटादिवदित्यतिप्रसंगः स्यात्। तस्मात् ज्ञानस्य निराकारत्वं' बहिःप्रमेयसद्भावश्च अङ्गीकर्तव्यः॥ [४१. प्राभाकरसंमतभ्रान्तिस्वरूपनिरासः।] अत्र प्राभाकरः प्रत्यवतिष्ठते। ननु तथैवाङ्गीक्रियते२ पृथिव्यादीनां शुक्तिरजतादीनां च सत्यत्वाभ्युपगमात् । अथ शुक्तिरजतादेः कथं सत्यत्वमिति चेत् वीताः प्रत्यया यथार्थाः प्रत्ययत्वात् संप्रतिपन्नसमीचीनप्रत्ययवदिति प्रमाणसिद्धत्वात्। तर्हि भ्रान्तिव्यवहारः कथमिति चेत् विज्ञानानां तत्ज्ञेयानां च विवेकाग्रहमानं भ्रान्तिरित्युच्यते । तद् यथा । क्यों कि बाह्य पदार्थों में बहुत से जड भी हैं। अतः ज्ञान को पदार्थों का आकार धारण करना सम्भव नहीं है। ज्ञान निराकार है तथा बाह्य पदार्थों का अस्तित्व उस से भिन्न है। ४१. प्राभाकर मत का निरास-अब प्रस्तुत विषय में प्राभाकर मीमांसकों के मत की चर्चा करते हैं। इन के मतानुसार पृथ्वी आदि की प्रतीति के समान सीप में प्रतीत होनेवाली चांदी भी सत्य ही है । ज्ञान सब सत्य ही होता है - भ्रान्त नहीं होता। फिर भ्रान्ति कैसे उत्पन्न होती है इस प्रश्न का उत्तर वे इस प्रकार देते हैं। पदार्थ तथा उस का ज्ञान इनमें विवेक का ग्रहण न होना भ्रान्ति है । उदाहरणार्थसीप को देखने पर ' यह कुछ है' ऐसा साधारण ज्ञान होता है, यह सीप है' ऐसा विशिष्ट ज्ञान नही होता, तथा सीप के सफेद रंग आदि के देखने से पहले कभी देखी हुई चांदी का स्मरण होता है, किन्तु मन के दोष से इस स्मरण को ही वर्तमान ज्ञान मान लिया जाता है। यह कुछ है' यह प्रत्यक्ष ज्ञान तथा चांदी का स्मरण इन दोनों में भेद प्रतीत १ नीलाद्याकागपणरहितत्वम् । २ ज्ञानस्य निराकारत्वं बहिःप्रमेयसद्भावश्च । ३ प्राभाकरमते मिथ्याज्ञानं नास्ति किंतु सर्व ज्ञान सत्यभूतमेव अतः प्राभाकरो वदति शुक्तिरजतादिज्ञानानामपि सत्यत्वम् । ४ अङ्गीकृतघटादिज्ञानवत् । ५ शुक्तिरजतादेः सत्यत्वे भ्रान्तिव्यवहारः कथमिति चेत् । ६ विज्ञानं सम्यक् न गृह्यते तथा तत्ज्ञेयं न गृह्यते ज्ञेयं ज्ञानं कृत्वा गृह्यते ज्ञानं ज्ञेयं कृत्वा गृह्यते इति भ्रान्तिः। न तु शुक्तिरजतज्ञानं भ्रान्तं ज्ञानस्य सत्यत्वात् तर्हि शुक्तिरजतज्ञानं भ्रान्तं नो चेत् तहि किम् इति चत् तत् तु स्मरणज्ञानमेवोच्यते प्राभाकरेण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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