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________________ १२२ विश्वतत्त्वप्रकाशः [४० समानत्वात् ज्ञानस्वरूपवदिति-तदप्यसांप्रतम्। तस्य रजतस्यापि प्रतिभासमानत्वं स्वतः परतो वा। प्रथमपक्षे असिद्धो हेतुः। रजतस्य जडत्वेन स्वतःप्रतिभासमानत्वासंभवात् । अथ रजतस्य संविदाकारत्वात् स्वतःप्रतिभासमानत्वं संभवतीति चेन्न। तस्य संविदाकारत्वासिद्धेः। अथ स्वतः प्रतिभासमानत्वात् तस्य संविदाकारत्वसिद्धिरिति चेन्न । इतरेतराश्रयप्रसंगात्। तत् कथमिति चेत् स्वतः प्रतिभासमानत्वात् रजतस्य संविदाकारत्वं संविदाकारत्वात् तस्य स्वतः प्रतिभासमानत्व. मिति । द्वितीयपक्षे विरुद्धो हेतुः। परस्मात् संवेदनात् प्रतिभासमानत्वस्य हेतुत्वाङ्गीकारे संवेदनाद् रजतस्य व्यतिरिक्तत्वप्रसाधनात्। तस्मात् पृथिव्यादयः संवेदनात् व्यतिरिक्ता एव अहमहमिकया अप्रतीयमानत्वात् इदंतया प्रतिभासमानत्वात् बाह्यतया अवभासमानत्वात् बहिःप्रवृत्तिविषयत्वाच्च व्यतिरेके' संवित्रस्वरूपवत् । रजतस्यापि संविदन्यत्वे साध्ये अमून् हेतून् प्रयुञ्जीत । यदप्यन्यदचूचुदत्-पुरोदेशे अभावेऽपि प्रतीयमानं रजतं कुतस्त्यमिति विचारे ज्ञानाकारमेवेत्यादि-तदप्यनुचितम् । शानस्य रजताद्याहै अतः ज्ञान से अभिन्न है यह कथन पूर्वोक्त प्रकार से ही दूषित है - चांदी स्वतः तो प्रतीत नही होती क्यों कि वह जड है, दूसरे किसी ज्ञान को वह प्रतीत होती है इस से यही स्पष्ट होता है कि वह ज्ञान से भिन्न है । यह चांदी ज्ञान का ही आकार है अतः स्वतः प्रतीत होती है यह कथन परस्पराश्रय का सूचक है - पहले कहा है कि यह प्रतीत होती है अतः ज्ञान का आकार है तथा अब कहते हैं कि ज्ञान का आकार है अतः स्वतः प्रतीत होती है । इस लिए चांदी की प्रतीति को ज्ञान से अभिन्न होने का कारण नही माना जा सकता। किसी को 'मैं पृथ्वी हूं' इस प्रकार एकत्वसूचक प्रीति नही होती, 'यह पृथ्वी है। इस प्रकार भिन्नतादर्शक प्रतीति ही होती है तथा यह प्रतीति बाह्य प्रवृत्ति का कारण होती है अतः पृथ्वी आदि पदार्थ ज्ञान से भिन्न हैं । सीप में प्रतीत होनेवाली चांदी विद्यमान न होते हुए भी प्रतीत होती है अतः वह ज्ञान का आकार है यह कथन ठीक नही । क्यों कि १ यत् संवेदनात् व्यतिरिक्तं न भवति तत् वाह्यतया अवभासमान न भवति यथा सवितस्वरूपम् । २ रजतं संविदः अन्यत् इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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