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ईश्वरनिरासः
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विभागासंभवात्। कुतः। ज्ञानानां स्वस्वरूपे विसंवादासंभवात्। किं च पृथिव्यादीनां संविदाकारत्वे इदंतया प्रतिभासो न स्यात् किंतु अहमहमिकया प्रतिभास एव स्यात् । न चैवं, तस्मान्न संविदाकाराः पृथिव्यादयः। यदप्यनुमानमवोचत्-वीताः पृथिव्यादयः ज्ञानादव्यतिरिक्ताः प्रतिभासमानत्वात् शुक्तिरजतवदिति तदसमञ्जसं प्रतिभासमानत्वस्य हेत्वाभासत्वात्। तथा हि । पृथिव्यादीनां प्रतिभासमानत्वं स्वतः परतो वा। प्रथमपक्षे असिद्धो हेतुः। पृथिव्यादीनां जडत्वेन स्वतः प्रतिभासासंभवात् । द्वितीयपक्षे विरुद्धो हेतुः पृथिव्यादीनां परतो ज्ञानात् प्रतिभासमानत्वस्य हेतुत्वाङ्गीकारे तस्माद्धेतोः पृथिव्यादीनां ज्ञानादतिरिक्तत्वसिद्धः। शुक्तिरजतस्य ज्ञानाकारत्वाभावात् साध्यविकलो दृष्टान्तश्च । अत्र यदपि प्रत्यवादि-वीतं रजतं संविदाकारं इन्द्रियसंयोगमन्तरेणापरोक्षत्वात् संवेदनस्वरूपवदिति रजतस्य संविदाकारत्वसिद्धेन साध्यविकलो दृष्टान्त इति तदयुक्तम् । बाह्यत्वजडत्वादिना हेतोर्व्यभिचारात् । कथम् । बाह्यत्वजडत्वादेः इन्द्रियसंप्रयोगमन्तरेणापरोक्षत्वसद्भावेऽपि संविदाकारत्वाभावात् । तथा यदप्यन्यदनुमानमभ्यधायि-वीतं रजतं ज्ञानादव्यतिरिक्तं प्रतिभा. अन्तर नही रहेगा । जो ज्ञान वस्तु के अनुरूप है वह संवादी कहलाता है तथा जो ज्ञान वस्तु के विपरीत है वह विसंबादी कहलाता है। यदि बाह्य वस्तु ही नही है तो संवाद या विसंवाद कैसे होगा ? अपने ही स्वरूप के विषय में ज्ञान में विसंवाद नही हो सकता । दूसरे, पृथ्वी आदि यदि ज्ञान के ही आकार हैं तो ज्ञान में यह पृथ्वी ' इस प्रकार भिन्नतादर्शक प्रतीति क्यों होती है ? ' मैं पृथ्वी' इस प्रकार एकतासूचक प्रतीति क्यों नही होती ? पृथ्वी आदि प्रतीत होते हैं अतः ज्ञान से अभिन्न हैं यह कथन भी अयुक्त है। पृथ्वी अपने आपको तो प्रतीत नही होती क्यों कि वह जड है। दूसरे किसी के ज्ञान को पृथ्वी प्रतीत होती है यह इसी का गमक है कि पृथ्वी से ज्ञान भिन्न है । सीप के स्थान में प्रतीत होनेवाली चांदी ज्ञान का आकार है क्यों कि इन्द्रिय संप्रयोग के विना उस का अपरोक्ष ज्ञान होता है - यह कथन भी युक्त नही। बाह्यता, जडता आदि का भी इन्द्रिय-संप्रयोग के विना अपरोक्ष ज्ञान होता है किन्तु वे ज्ञान के आकार नही हैं। अतः चांदी की प्रतीति का उदाहरण प्रस्तुत अनुमान में उपयुक्त नहीं है । यह चांदी प्रतीत होती
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