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________________ -३२ ] पुरुषोच्चारितत्वं तथा च वेदवाक्यानां पुरुषोच्चारणसद्भावात् सिद्धसाध्यत्वेन हेतोरकिंचित्करत्वमिति चेन्न । कादम्बर्यादिकाव्येषु या प्रसिद्धा इदंप्रथमता' तादृग्भूते प्रथमताया एव प्रसाध्यत्वात् । वेदप्रामाण्यनिषेधः तथा पौरुषेया वेदाः राजर्ष्या दोनां चरित्रोपाख्यानत्वान् भारतादिवत् । अथ वेदस्य राजर्ष्यादिचरित्रोपाख्यानत्वाभावादसिद्धो हेत्वाभास इति चेन्न । पुराकल्पेषु पुरातनचत्रियाणां चरित्रोपाख्यानप्रतिपादनात् । तत् कथमिति चेत् । अज्ञातज्ञापको विधि: संध्यामुपासीत अग्निहोत्रं जुहुयादिति । अनुष्ठानप्रवर्तको मन्त्रः अग्नये स्वाहा, अग्नेः इदं न मम इत्यादि । अनुष्ठानस्तावको' अर्थवादः 'यस्मिन् देशे नोष्ण न क्षुन्न ग्लानिः पुण्यकृत एव प्रेत्य तत्र गच्छन्ति सर्वस्याप्त्यै: सर्वस्य चित्यै सवमेव तेनाप्नोति सर्व जयति' इत्यादि । पुरातनचरित्रोपाख्यानम्- 'पुराकल्पे ८९ वे पौरुषेय हैं ही यह कहना भी अयोग्य है । प्रतिपक्षी वेद को जब पौरुषेय कहते हैं तो उन का तात्पर्य यह होता है कि कादम्बरी आदि काव्य जैसे कवियों द्वारा नये बनाए जाते हैं उसी प्रकार वेदमन्त्रों की रचना ऋषियों द्वारा की गई थी । Jain Education International वेद पौरुषेय हैं यह सिद्ध करने का बलवान प्रमाण यह है कि वेदों में राजर्षियों की चरित कथाएं पाई जाती हैं । वेदमन्त्रों के मुख्य चार प्रकार हैं- विधि, मन्त्र, अर्थवाद तथा पुरातन कथावर्णन | विधि जैसे वह है जिस में अज्ञात वस्तुकी जानकारी दी जाती है, C 'सन्ध्या की उपासना करनी चाहिए, अग्निहोत्र का हवन करना चाहिए । ' अनुष्ठान में उपयुक्त वाक्य मन्त्र हैं, जैसे- ' अग्रि को अर्पण हो, यह अग्नि का है, मेरा नही ' । अनुष्ठान की स्तुति करनेवाले वाक्य अर्थवाद हैं, जैसे- 'पुण्य करनेवाले लोग मृत्युके बाद उस स्थान में जाते हैं जहां गर्मी नही होती, भूख नही होती, ग्लानि नही होती, सब की प्राप्ति तथा संग्रह होता है, उस से सब प्राप्त होता है, सब पर जय प्राप्त होता है । पुरातन कथा का उदाहरण इस प्रकार है। 6 पुरातन समय में देव तथा असुर युद्ध कर रहे थे, उस में देवों को विजय प्राप्त हुआ ', ' अंगिरस यज्ञ कर रहे थे, उन के लिए पृष्णिक् धर्म १ प्रथमकालोत्पन्नत्वम् । २ स्तुतिकारकः । ३ गत्वा । ४ प्राप्त्यै । ५ ज्ञानाय । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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