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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[३०
न्यदेव वाक्यजनितं स्मरणमिति चेन्न। स्मरणस्य संस्कारमन्तरेणजननासंभवात् । तथा हि । वीतं ज्ञानम् अनुभवजनितसंस्कारजं स्मरणत्वात् प्रसिद्धस्मरणवत् । तथा चोक्तं शालिकाया मपि।
प्रमाणमनुभूतिः सा स्मृतेरन्या पुनः स्मृतिः। पूर्वविज्ञानसंस्कारमात्रजं ज्ञानमुच्यते ॥
(प्रकरणपञ्चिका ६-२) इति । तस्माद् वेदस्यापौरुषेयत्वाभावात् पौरुषेयत्वेऽपि सर्वज्ञप्रणीतत्वाभावाच्च तस्य अप्रामाण्यमेव स्यात् । [३०. वेदानां बहुसंमतत्वनिरासः।]
ननु वेदाः प्रमाणं बहुजनपरिगृहीतत्वात् आयुर्वेदवदिति वेदानां प्रामाण्यसिद्धिरिति चेन्न। तुरष्कशास्त्रण हेतोय॑भिचारात्। अथ विशिष्टबहुजनपरिगृहीतत्वं हेतुरिति चेत् तर्हि जनानां वैशिष्टयं कौतस्मरणरूप मानें तो किसी को इसका अनुभव भी हुआ होगा यह स्पष्ट होता है क्यों कि अनुभव से उत्पन्न संस्कार से ही स्मरण होता है । शालिकनाथ ने स्मृति के विषय में कहा भी है, ' अनुभूति प्रमाण होती है तथा वह स्मृति से भिन्न होती है। स्मृति वह ज्ञान है जो पहले के ज्ञान के संस्कार से उत्पन्न होता है। अतः 'प्रजापति से वेद उत्पन्न हुए, इस वाक्य तो स्मरणरूप मानने पर भी असत्य नही कहा जा सकता। तदनुसार वेद अपौरुषेय नही हो सकते। वेद पौरुषेय हैं किन्तु सर्वज्ञप्रणीत नही हैं अतः वे प्रमाणभूत नहीं हैं। . ३०. वेद बहुसम्मत नहीं हैं-आयुर्वेद के समान वेद भी बहुत लोगों को मान्य हैं अतः वे प्रमाण हैं यह अनुमान प्रस्तुत किया गया है। किन्तु सिर्फ बहुत लोगों को मान्य होना प्रमाणभूत होने का सूचक नही है । तुरुष्क लोगों के शास्त्र भी बहुत लोगों को मान्य हैं किन्त उन्हें वेदानुयायी प्रमाण नही मानते । इस के उत्तर में कहा जाता है कि साधारण लोगों की मान्यता से प्रमाणभूत होना व्यक्त नही होता
१ प्राभाकरे । २ वेदस्य । ३ वैद्यकशास्त्र । ४ म्लेच्छशास्त्र।
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