SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -२९] इति उभयपक्षेऽपि मीमांसकानां दोषसद्भावाददृष्टस्य मानान्तरगोचरत्वं लिङादीनामदृष्टादन्यवाचकत्वं च स्वीकर्तव्यम् । तथा च ' तस्मात् तपस्तेपानाश्चतुरो वेदा अजायन्त' इति प्रमाणभूतादागमाद् वेदस्य सकर्तृकत्वसिद्धेः कर्तुरुपलम्भकप्रमाणरहितत्वादित्यसिद्धो हेत्वाभासः । अथ कार्यान्वयरहितवाक्यानां' प्रमितिजनकत्वाभावात् प्रमाणभूतत्वं नास्तीति चेन्न । प्रमितिजनकत्वसद्भावात् । तथा हि । तद्वाक्यश्रवणाद् व्युत्पन्नानां क्वचिदर्थे प्रतीतिर्जायते न वा । न जायते इति वक्तुं नोचितम् । शब्दशब्दार्थवेदिनामन्वितार्थसुशब्द संदर्भश्रवणादर्थप्रतीतिजनन नियमात् । अथ प्रतीतिर्जायते तत्प्रमाणं न भवत्यप्रमाणमेव तत्प्रतीतेः स्मरणरूपत्वादिति चेन्न । स्मरणस्यानुभवजनितसंस्कारजत्वात् प्राक्तनप्रमया प्रमितत्वेन वेदकर्तुरनुभवसिद्धिप्रसंगात् । तथा च कर्तुरुपलम्भकप्रमाणरहितत्वादित्यसिद्धो हेतुः । अथ तदनुभवजनितसंस्कारजं स्मरणं न भवत्य । वेदप्रामाण्यनिषेधः " आगम से भिन्न प्रमाण का विषय मानते हैं तो वह अपूर्व विषय नही रहेगा । किन्तु अन्य प्रमाणों से अदृष्ट का ज्ञान नही होता यह मानें तो शब्दों द्वारा उस का वर्णन सम्भव नही होगा । अतः वेद प्रतिपादित विषयों का ज्ञान अन्य प्रमाणों से भी होता है तथा वेद के क्रियापद अदृष्ट से भिन्न अन्य पदार्थों का भी वर्णन करते हैं यह स्वीकार करना चाहिए | तदनुसार ' प्रजापति से वेद उत्पन्न हुए ' इस - वाक्य से ही वेद के कर्ता का अस्तित्व स्पष्ट होता है । वेद-व Jain Education International ७९ 1 कार्यविषय से रहित वाक्य प्रमिति को उत्पन्न नही करते अतः वे वाक्य प्रमाण नही होते यह मीमांसकों का कथन है । किन्तु यह उचित नही । कार्य विषय से रहित वाक्य सुन कर अर्थ की प्रतीति तो होती ही है । फिर प्रमिति उत्पन्न नही होती यह कैसे कह सकते हैं ? यहां मीमांसकों का उत्तर है कि कार्यविषय से रहित वाक्य से अर्थ तो प्रतीत होता है किन्तु वह प्रतीति स्मरणरूप है अतः प्रमाण नही है । किन्तु यह उत्तर भी मीमांसकों को अन्ततः प्रतिकूल ही सिद्ध होता है । उनके कथनानुसार ' प्रजापति से वेद उत्पन्न हुए ' इस प्रस्तुत वाक्य को १ सिद्धार्थ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy