SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विश्वतत्त्वप्रकाशः [२० सावयवत्वात् घटादिवदिति भूभुवनभूधरादीनां कार्यत्वसिद्धिरिति चेन्न । तत्र सावयवत्वं नाम अवयवैरारब्धत्वम् अवयवेषु वृष्तिमत्त्वं वा स्यात् । प्रथमपक्षे असिद्ध हेतुः । कुतः । अवयवैरारब्धत्वमेव कार्यत्वमिति हेतोः साध्यसमत्वात् । द्वितीयपक्षे अवयवसामान्येन व्यभिचारः । कथम् । अवयव सामान्यस्य २ अवयवेषु वृत्तिमत्त्वेऽपि कार्यत्वाभावात् । अथ सामान्यवत्वे सत्यवयवेषु वृत्तिमत्त्वादिति चेन्न । तथापि हेतोराद्यद्रद्वयणुकावयवगतरूपादिभिर्व्यभिचारात् । तदन्यत्वे सतीति विशेष्यत इति वेत् तर्हि न कोऽपि हेतुर्व्यभिचारी स्यात् । सर्वत्र तदन्यत्वे सतीति वक्तुं शक्यत्वात् । मा भूद् व्यभिचारी हेतुः का नो' हानिरिति चेन्न । अपसिद्धान्तापातात् । कुतः स्वयमसिद्धविरुद्धानैकान्तिकाद्य 'भिधानात् । 1 ४४ हैं यह नियय भी योग्य नहीं क्यों कि उत्पत्ति के प्रथम क्षण में सभी कार्य द्रव्य अमूर्त होते हैं यह न्यायदर्शन का ही मत है । भूमि आदि सावयव हैं अतः कार्य हैं यह कथन भी योग्य नहीं । सावयव का अर्थ अवयवों से आरम्भ होना अथवा अवयवों में विद्यमान होना ऐसा दो प्रकार से हो सकता है । अवयवों से आरम्भ होना और कार्य होना एक ही बात है अतः एकको दूसरे का हेतु बतलाना योग्य नहीं । दूसरा पक्ष - अवयवों में विद्यमान होना भी सम्भव नहीं क्योंकि अवयवसामान्य - अवयवत्व - अवयवों में विद्यमान तो होता है किन्तु कार्य नहीं होता । इस एक बात को अपवाद मानें तो भी मूल हेतु निर्दोष नहीं होता - आद्य द्व्यणुक आदि के अवयवों में रूपादि विद्यमान होते हैं किन्तु वे कार्य नहीं होते - नित्य होते हैं ऐसा न्यायदर्शन का ही मत है । अवयवों में विद्यमान होता और कार्य होना इन दो बातों में अवश्य सम्बन्ध नहीं है यह स्पष्ट हुआ । अतः १ अवयवेषु अवयवसामान्यस्य वृत्तिरस्ति तस्याः कार्यत्वाभावः । २ अवयवत्वस्य, अवयवत्वं सामान्यं घटे घटत्वं पटे पटत्वं वर्तत एव । ३ भूभुवनभूधरादिकं कार्यं सामान्यवस्त्वे सत्यवयवेषु वृत्तिमत्त्वात् ॥ ४ नित्यानां तु रूपादयो नित्या एव इति नैयायिकेनोक्तत्वात् । ५ नैयायिकादीनां । ६ प्रकरणसम्मकालात्ययापदिष्टादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy