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________________ -२०] ईश्वरनिरासः चारु । तत्र आत्मनोऽनणुत्वे सत्यसर्वगतत्वेऽपि कार्यत्वाभावेन तेन हेतोरनेकान्तत्वात् । कुत एतदिति चेत् आत्माऽसर्वगतः दिक्कालाकाशान्यद्रव्यत्वात् अश्रावण विशेषगुणाधिकरणत्वात् परमाणुवत् शानासमचाय्याश्रयत्वात् मनोवत् द्रव्यत्वस्या वान्तरसामान्यवत्त्वात्- पटवदित्यनु. मानात् । अथ भूभुवनभूधरादिकं कार्यम् अनणुत्वे सति रूपादिमत्वात् पटवदिति चेन्न । सकलकार्यद्रव्याणामुत्पत्तिप्रथमसमये रूपादिमत्त्वाभावेन हेतोः स्वरूपासिद्धत्वात् । अथ भूभुवनभूधरादिकं कार्यम् अनणुत्वे सति मूर्तत्वात् पटवदिति चेन। हेतोर्विचारासहत्वात् । कथम्। मूर्तत्वं नाम असर्वगतद्रव्यत्वं रूपादिमत्त्वं वा। प्रथमपक्षे आत्मना अनेकान्तः। द्वितीयपक्षे स्वरूपासिद्धत्वमिति । अथ भूभुवनभूधरादिकं कार्य हैं अतः भूमि आदि कार्य हैं यह कहना उचित नहीं । आत्मा अणु से भिन्न है और सर्वगत नहीं है किन्तु कार्य नहीं है। इस पर आक्षेप करते हैं कि न्यायदर्शन में तो आत्मा को सर्वगत माना है। उत्तर यह है कि आत्मा सर्वगत नहीं है क्यों कि वह दिशा, काल और आकाश से भिन्न द्रव्य है, विशेष गुणों का आधार है, ज्ञान का असमवायी आश्रय है और द्रव्यत्व से भिन्न सामान्य (जीवत्व)से युक्त है। ( इन सब युक्तियोंका आगे विस्तार से वर्णन किया है।) भूमि आदि रूपादि गुणों से युक्त हैं अतः कार्य हैं यह कहना भी उचित नहीं क्यों कि न्यायदर्शन के ही अनुसार प्रत्येक कार्य द्रव्य उत्पत्ति के प्रथम क्षण में रूप आदि से रहित होता है। अतः जो रूपादियुक्त है वह कार्य है यह नियम योग्य नहीं। इसी प्रकार जो मूर्त हैं वह कार्य १ आत्मा असर्वगतः अश्रावणेत्यादि। २ श्रावणः शब्दः स एव विशेषगुणः तस्याधिकरणम् आकाशं तत्सर्वगतम् अत उक्तम् अश्रावणविशेषेत्यादि । ३ ज्ञानासमवायि आत्मनः संयोगः तस्याश्रयत्वम् आत्मनि मनसि च विद्यते। ४ द्रव्यत्वं नामावान्तरसामान्यमाकाशादिष्वपि सर्वगतेष्वस्तीति व्यभिचारशङ्का न कर्तव्या, अनुमानप्रयोक्तुरन्यथाभिप्रायात् , एवमित्यभिप्रायः -तस्य द्रव्यत्वे अवान्तरसामान्यं द्रव्यत्वावान्तरसामान्यम् इति तच्च पक्षे आत्मत्वं दृष्टान्ते पटत्वम् एवंविधं द्रव्यत्वावान्तरसामान्यम् आकाशादिषु नास्ति तेषामेकैकव्यक्तितया आकाशत्वादेरभावात् ततो व्यभिचाराभावः। ५आत्मा सर्वगतः इत्यादेः। ६ यौगः। ७ आत्मा असर्वगतः द्रव्यं वर्तते परंतु कार्य न। ८ सकलकार्यद्रव्याणामुत्पन्नप्रथमसमये रूपादिमत्त्वाभावेन हेतोः स्वरूपासिदत्वम् । ९ यौगः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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