________________
४२
विश्वतत्त्वप्रकाशः
[२०
उभयवादिप्रतिपन्नस्य सदसद्वर्गस्य पक्षीकरणान्नाश्रयासिद्धत्व'मित्यादिकं कथं यूयमवादिष्टेति चेत् पराभ्युपगममात्रेणेति जागद्यामहे । ननु तथापि सर्वशास्तित्वे बाधकप्रमाणसभावात् सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्वं स्वरूपासिद्धमिति चेन्न । सर्वशप्रतिपादकागमस्य प्रामाण्यसमर्थनावसरे प्रागेव बाधकप्रमाणासंभवस्य सुनिश्चितत्वात् ॥ [ २०. जगतः कार्यत्वनिषेधः। ]
यदप्यनूद्यापास्थत् - तनुकरणभूभुवनादिकं बुद्धिमद्धेतुकं कार्यत्वात् पटवदित्येतदनुमानं सर्वशावेदकं भविष्यतीति चेन,३ हेतो गा. सिद्धत्वात्, कथमिति चेत् भवदभिमतकार्यत्वस्य पर्वतादिष्वप्रवर्तनादिति । तत्तथैवास्माभिरण्यङ्गीक्रियते। अभूत्वाभावित्वलक्षणस्य यौगाभिमतकार्यत्वस्य भूभुवनभूधरादिष्वभावात् । अत्र योगः प्रत्यवातिष्ठिपत् । भूभुवनभूधरादिकं कार्यम् अनणुत्वे सत्यसर्वगतत्वात् पटवदिति , तदप्यनिश्चय न हो)। आश्रयासिद्ध- जिस में धर्मीका अस्तित्व सिद्ध न होआदि का निरूपण हम ने नही किया है। यदि पहले आश्रयासिद्ध आदि का उल्लेख किया है ( पूर्व परिच्छेद १५) तो वह दूसरे पक्ष को उत्तर देने मात्र के लिये समझना चाहिये । सर्वज्ञ के विषय में बाधक प्रमाण सम्भव नही हैं यह पहले विस्तार से बतलाया ही है।
२०. जगतके कार्यत्वका निषेध-कोई सर्वज्ञ ईश्वर जगत का कर्ता नही है यह चार्वाकों का मत जैन दार्शनिकों को भी मान्य है। शरीर, इन्द्रिय, भूमि, भुवन आदि कार्य हैं अतः उन का कोई बुद्धिमान कर्ता होना चाहिये यह अनुमान योग्य नही । न्यायदर्शन के ही अनुसार कार्य वह होता है जो पहले विद्यमान न हो और बाद में उत्पन्न हुआ हो। यह बात पर्वतों आदि में नही पाई जाती अतः उन्हें कार्य कहना योग्य नही और इसोलिये उन के कर्ता की भी कल्पना व्यर्थ है। जो अणु से भिन्न हैं और असर्वगत हैं ( सर्वव्यापी नही हैं ) वे कार्य होते
१ अनेकत्वादित्यस्य हेतोर्न आश्रयासिद्धत्वम् । २ तिरपकारमका चार्वाकः । ३ चार्वाकः नैयायिक प्रति कथयति इति चेन्न हेतो गासिद्धत्वादित्यादि। ४ जैनैः। ५ योगः। असर्वगतत्वादियुक्ते अणुषु अतिव्याप्तिः। अणुः असर्वगतोऽस्ति परंतु अणुः कार्य न अतः अनणुत्वे सतीति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org