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प्रस्तावना
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प्रमाण, नय तथा निक्षेप इन तीन परिच्छेदों में जैन प्रमाण शास्त्र का संक्षिप्त वर्णन इस में किया है।
[ प्रकाशन- - १ यशोविजय ग्रंथमाला, काशी १९०८; २ सं. पं. सुखलाल, सिंधी ग्रंथमाला, बम्बई १९३८ ]
ज्ञानविन्दु - - इस में मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय तथा केवल इन पांच ज्ञानों का वर्णन किया है। इन से सम्बद्ध तार्किक विषयकेवलज्ञानी (सर्वज्ञ) का अस्तित्व, केवली के ज्ञान व दर्शन का भेद, ज्ञान का प्रामाण्य व अप्रामाण्य आदि की चर्चा भी को है । सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र के कतिपय मतों का अच्छा समर्थन इस में मिलता है ।
[ प्रकाशन- - १ यशोविजय ग्रन्थमाला, काशी १९०८; २ सं. पं. सुखलाल, सिंत्री ग्रन्थमाला, १९४२ ]
नयोपदेश, नयरहस्य व नयप्रदीप - इन तीन ग्रंथों में नयों के स्वरूप की चर्चा है । इन में पहले पर लेखक ने स्वयं नयामृततरंगिणी नामक टीका लिखी है।
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[ प्रकाशन- - जैनधर्मप्रसारक सभा, भावनगर १९०८ ]
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न्यायखण्डखाद्य – वीरस्तुति के रूप में इस में न्यायदर्शन के सिद्धान्तों की आलोचना की है । इस पर लेखक ने स्वयं ५५०० श्लोकों जितने विस्तार को टीका लिखी है ।
[ प्रकाशन - प्र. मनसुखभाई भागूभाई, अहमदाबाद ] न्यायालोक - यह रचना भी न्यायदर्शन के खण्डन के लिए लिखी गई थी । विजयनेमिसूरि ने टीका लिखकर इसे प्रकाशित कराया है । अनेकान्तव्यवस्था- - नवीन न्याय की शैली में अनेकान्त की परिभाषाओं का वर्णन इस ग्रन्थ में किया है ।
[ प्रकाशन - - जैनग्रन्थप्रकाशक सभा, अहमदाबाद ] अष्टसहस्रीविवरण – इस में विद्यानन्दकृत अष्टसहस्री के कठिन स्थलों का स्पष्टीकरण है । 'वित्रमपदतात्पर्यविवरण ' यह इस का पूरा नाम है । इस का विस्तार ८००० श्लोकों जितना है ।
१) जैन साहित्य और इतिहास पृ. ३९५ - ९८ ।
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