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आठवां अध्याय । एकमेक हो रहे हैं । आज तक कभी ऐसा अवसर न आया जिसमें ये सर्वथा भिन्न-भिन्न हुये हों; तथापि अनुभवज्ञानके वलसे इनको भिन्न भिन्न कर जान लिया जाता है-यह शुद्धचिद्रूप है और ये जड़ शरीर और कर्म हैं-यह बात स्पष्ट रूपसे समझमें आ जाती है ।। १९-२० ॥
आत्मानं देहकर्माणि भेदज्ञाने समागते । मुक्त्वा यांति यथा सर्पा गरुडे चंदनद्रुमं ॥ २१ ॥
अर्थ:-जिस प्रकार चन्दन वृक्ष पर लिपटा हुआ सर्प अपने बैरी गरुड़ पक्षीको देखते ही तत्काल आँखोंसे ओझल हो जाता है, पता लगाने पर भी उसका पता नहीं लगता । उसी प्रकार भेदविज्ञानके उत्पन्न होते ही समस्त देह तथा कर्म आत्माको छोड़कर न मालूम कहां लापता हो जाते हैं, विरोधी भेदविज्ञानके उत्पन्न होते ही कर्मोकी सूरत भी नहीं दिख पड़ती ।। २१ ।।
भेदज्ञानबलात् शुद्धचिद्रूपं प्राप्य केवली । भवेद्देवाधिदेवोऽपि तीर्थकर्ता जिनेश्वरः ।। २२ ।।
अर्थः.-इसी भेदविज्ञानके बलसे यह आत्मा शुद्धचिद्रूपको प्राप्तकर केवलज्ञानी, तीर्थंकर और जिनेश्वर और देवाधिदेव होता है ।
भावार्थ:-केवली, जिनेश्वर आदि पदोंकी प्राप्ति अति कठिन है परंतु भेदविज्ञानियोंके लिये अति कठिन नहीं; क्योंकि जो महानुभाव अपने भेदविज्ञानरूपी अखंड बलसे शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति कर लेते हैं वे केवलज्ञानरूपी अचित्यविभूतिसे मंडित हो जाते हैं, समस्त देवोंके स्वामी, तीर्थंकर और जिनेश्वर
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