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! तत्त्वज्ञान तरंगिणी अर्थ : ---योगीगण भेदविज्ञानम्पी नेत्रकी सहायतासे सिद्धस्थान और शरीर में विद्यमान समस्त कर्मोसे रहित शुद्धचिद्रूपको स्पष्ट रूपसे देख लेते हैं ।
भावार्थः--जिस प्रकार गृह आदि स्थानों पर स्थित पदार्थ नेत्रसे भले प्रकार देख-जान लिये जाते हैं, उसी प्रकार सिद्धस्थान ( मोक्ष ) और अपने शरीर में विद्यमान समस्त कर्मोसे रहित इस शुद्धचिद्रूपको दिखानेवाला जो भेदविज्ञान है उसके द्वारा योगी शुद्धचिद्रूपको भी स्पष्ट रूपसे देख लेते हैं ।। १८ ॥
मिलितानेकवस्तूनां स्वरूपं हि पृथक पृथक् । स्पर्शादिभिविदग्धेन निःशंकं ज्ञायते यथा ॥ १९ ॥ तथैव मिलितानां हि शुद्धचिद्देहकर्मणां ।। अनुभूत्या कथं सद्भिः स्वरूपं न पृथक पृथक् ॥२०॥युग्मं।।
अर्थः-जिस प्रकार विद्वान मनुष्य आपसमें मिले हुये अनेक पदार्थोंका स्वरूप स्पर्श आदिके द्वारा स्पष्टरूपसे भिन्नभिन्न पहिचान लेते हैं, उसीप्रकार आपस में अनादिकालसे मिले हुये शुद्धचिद्रूप, शरीर और कर्मोके स्वरूपको भी अनुभवज्ञानके बलसे सत्पुरुषों द्वारा भिन्न-भिन्न क्यों न जाना जाय ?
भावार्थ:-संसार में पदार्थोके स्वरूप भिन्न-भिन्न हैं और उनके बतलाने वाले लक्षण भी भिन्न-भिन्न हैं । जल और अग्नि आदि पदार्थ एक स्थान पर स्थित रहने पर भी अपने शीत और उष्ण स्पर्शसे स्पष्टरूपसे भिन्न-भिन्न जान लिये जाते हैं; क्योंकि जल और अग्निमें शीतस्पर्श सिवाय जलके और उष्णस्पर्श सिवाय अन्यमें नहीं रहता । उसी प्रकार यद्यपि शुद्धचिप, शरीर और कर्म अनादिकालसे आपस में
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