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________________ ७६ ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी ब्राह्मण आदि वर्णोका पक्षपात, जाति, सम्बन्धी, कुल, परिवार भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, हृदय और वाणी ये सब पदार्थ विकारके करनेवाले हैं-इनको अपना मानकर स्मरण करनेसे ही चित्त, शुद्धचिद्रूपकी ओरसे हट जाता है, चंचल हो उठता है तथा मैं कर्ता और कारण आदि हूँ इत्यादि कारकोंके स्वीकार करनेसे भी चित्तमें चल-विचलता उत्पन्न हो जाती है-इसलिये स्वाभाविक गुणोंके भंडार शुद्धचिद्रूपको ही मैं निविभागरूपसे कर्ता-कारणका कुछ भी भेद न कर स्मरण मनन, ध्यान करता हूँ । ___ भावार्थ:-चित्तमें किसी प्रकारकी चंचलता न आनापरिणामोंका आकुलतामय न होना ही परमसुख है । मैं देखता हूँ जिस समय देश, राष्ट्र, पुर, कुल, जाति और परिवार आदिका विचार किया जाता है, उनके रहन-सहन पर ध्यान दिया जाता है तो मेरा चित्त आकुलतामय हो जाता है, रंचमात्र भी परिणामोंको शांति नहीं मिलती परन्तु शुद्धचिद्रूपके स्मरण करनेसे चित्तमें किसी प्रकारकी खट-खट नहीं होती, एकदम शांतिका संचार होने लग जाता है, इसलिये समस्त जगतके जंजालको छोड़कर मैं शुद्धचिद्रूपका ही स्मरण करता हूँ उसीसे मेरा कल्याण होगा ।। ३ ।। स्वात्मध्यानामृतं स्वच्छं विकल्पानपसार्य सत् । पिवति क्लेशनाशाय जलं शैवालवत्सुधीः ॥४॥ अर्थः-जिस प्रकार क्लेश ( पिपासा)की शांतिके लिये जलके ऊपर पुरी हुई काईको अलग कर शीतल सुरस निर्मल जल पीया जाता है, उसीप्रकार जो मनुष्य बुद्धिमान हैं, दुःखोंसे दूर होना चाहते हैं वे समस्त संसारके विकल्प जालोंको छोड़कर आत्मध्यानरूपी अनुपम स्वच्छ अमृत-पान करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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