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आठवां अध्याय ]
[ ७५ अर्थ :-- जिस प्रकार स्वर्णपाषाणसे सोना भिन्न किया जाता है, मैलसे वस्त्र, सोनेसे तांबा - चांदी आदि पदार्थ, लोहे से अग्नि, ईखसे रस, कीचड़से जल, केकी ( मयूर ) के पंखसे ताँबा, तिल आदिसे तेल, ताँबा आदि धातुओंसे चांदी और दूधसे जल एवं घी भिन्न कर लिया जाता है, उसीप्रकार जो मनुष्य ज्ञानी है-जड़ चेतनका वास्तविक ज्ञान रखता है वह शरीरसे आत्माको भिन्न कर पहिचानता है ।
भावार्थ:- मोक्ष अवस्थाके पहिले आत्मा और शरीरका सम्बन्ध अनादिकाल से है । ऐसा कोई भी अवसर प्राप्त न हुआ जिसमें शरीर और आत्मा सर्वथा भिन्न हुये हों तथा अज्ञानियोंको शरीर और आत्मा दोनों एक ही जान पड़ते हैं, उन्हें भेद दृष्टिगोचर होता ही नहीं । परन्तु ज्ञानियोंकी दृष्टि में अवश्य भेद है क्योंकि जिस प्रकार अनादिकालसे मिले हुये सोनेके पापाण और सोनेके, मैल और वस्त्रको, तांबा और चांदी-सोनेको, लोह और अग्निको, ईख और उसके रसको, कीचड़ ओर पानीको, मोरके पंख और तांथेको, तिल और तेलको, तांबा आदि धातु और चांदीको और क्षीर और नीर व घीको सर्वथा भिन्न-भिन्न कर जान लिया जाता है, उसी प्रकार ज्ञानी भी शरीर और आत्माको सर्वथा भिन्न-भिन्न कर पहिचानता है ।। २ ।।
देशं राष्ट्रं पुराद्यं स्वजनवनधनं वर्गपक्षं स्वकीयज्ञातिं सम्बन्धिवर्ग कुलपरिजनकं सोदरं पुत्रजाये । देहं हृद्वाग्विभावान् विकृतिगुणविधीन् कारकादीनि भित्वा शुद्धं चिद्रूपमेकं सहजगुणनिधिं निर्विभागं स्मरामि ॥ ३ ॥ अर्थः – देश, राष्ट्र, पुरगाँव, स्वजनसमुदाय, धन, वन,
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