________________
भट्टारकश्रीज्ञानभूषण विरचिता तत्त्वज्ञान तरंगिणी
शुद्धचिपके लक्षण
प्रथम अध्याय प्रणम्य शुद्धचिद्रूपं सानंदं जगदुत्तमं ।।
तल्लक्षणादिकं वच्मि तदर्थी तस्य लब्धये ॥ १ ॥ अर्थः-निराकुलतारूप अनुपम आनंद भोगनेवाले, समस्त जगतमें उत्तम, शुद्ध चैतन्य स्वरूपको नमस्कार कर उसकी प्राप्तिका अभिलाषी, मैं ( ग्रंथकार ) उसके लक्षण आदिका प्रतिपादन करता हूँ ।
भावार्थ:-इस श्लोकमें शुद्धचिद्रूप विशेष्य और सानंद एवं जगदुत्तम उसके विशेषण हैं । यहां पर शुद्ध आत्माकी जगह 'शुद्धचिद्रूप' ऐसा कहनेसे यह आशय प्रगट किया है कि ज्ञान आदि रूप चेतना और आत्मा जुदे पदार्थ नहीं-ज्ञान आदि रूप ही आत्मा है । अनेक महाशय आत्माको आनंद स्वरूप नहीं मानते-उससे आनंदको जुदा मानते हैं, इसलिये उनको समझानेके लिये 'सानंद' पद कहा है अर्थात् आत्मा आनंद स्वरूप है । नास्तिक आदि शुद्धचिद्रूपको मानते नहीं और उनकी दृष्टिमें वह उत्तम भी नहीं जॅचता, इसलिये उनके बोधनार्थ यहाँ ‘जगदुत्तम' पद दिया है अर्थात् लोकके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org