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________________ द्वितीय अध्याय ] वृतं शीलं श्रुतं चाखिलखजयतपोदृष्टिसद्भावनाश्च . धर्मों मूलोत्तराख्या वरगुणनिकरा आगसां मोचनं च । बाह्यांतः सर्वसंगत्यजनमपि विशुद्धांतरगं तदानी मूर्मीणां चोपसर्गस्य सहनमभवच्छुद्धचित्संस्थितस्य ॥ ६ ॥ अर्थ :-जो महानुभाव शुद्धचिद्रूरूपमें स्थित है उसके सम्यक्चारित्र, शील और शास्त्रकी प्राप्ति होती है, इन्द्रियोंका विजय होता है, तप, सम्यग्दर्शन, उत्तम भावना और धर्मका लाभ होता है, मूल और उत्तररूप कहलाते उत्तमगुण प्राप्त होते हैं, समस्त पापोंका नाश, बाह्य और अभ्यंतर परिग्रहका त्याग और अन्तरंग विशुद्ध हो जाता है एवं वह नानाप्रकारके उपसर्गोंकी तरंगोंको भी झेल लेता है। भावार्थ :--शुद्धचिद्रूप में मनके स्थिर करनेसे उत्तमोत्तम गुण प्राप्त होते हैं और दुःख दूर हो जाते हैं, इसलिये विद्वानोंको चाहिये कि वे कर्ममलरहित पवित्र चैतन्यस्वरूप आत्मामें अपना मन स्थिर करें ।। ६ ।।। तीर्थेपूत्कृष्टतीर्थ श्रुतिजलधिभवं रत्नमादेयमुच्चैः सौख्यानां वा निधानं शिवपदगमने वाहनं शीघ्रगामि । वात्यां कमौंधरणो भववनदहने पावकं विद्धि शुद्धचिद्रपोहं विचारादिति वरमतिमन्नक्षराणां हि षट्कं ॥ ७ ॥ अर्थ :-ग्रन्थकार उपदेश देते हैं कि-हे मतिमन् ! 'शुद्धचिद्रूरूपोऽहं' मैं शुद्धचित्स्वरूप हूँ, ऐसा सदा तुझे विचार करते रहना चाहिये; क्योंकि 'शुद्धचिद्रूरूपोहं' ये छै अक्षर संसारसे पार करने वाले समस्त तीर्थोंमें उत्कृष्ट तीर्थ हैं। शास्त्ररूपी समुद्रसे उत्पन्न हुये 'ग्रहण करनेके लायक' उत्तम रत्न हैं। समस्त सुखोंके विशाल खजाने हैं। मोक्ष स्थानमें त. ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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