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________________ १६ ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी विषयसुखका भोग करते हैं; परन्तु वह सुख, सुख नहीं कहलाता क्योंकि शुद्धचिपके ध्यानसे उत्पन्न हुये आत्मिक नित्य सुखकी वह अनित्य तथा पदार्थोंसे जन्य होनेसे अंश मात्र भी तुलना नहीं कर सकता ॥ ४ ॥ सौख्यं मोहजयोऽशुभास्रवहतिर्नाशोऽतिदुष्कर्मणा मत्यंतं च विशुद्धता नरि भवेदाराधना तात्त्विकी । रत्नानां त्रितयं नृजन्म सफलं संसार भीनाशनं चिद्रूपोहमितिस्मृतेश्च समता सद्द्भ्यो यशः कीर्त्तनं ॥५॥ अर्थः- " मैं शुद्धचिद्रूप हूँ " ऐसा स्मरण होते ही नाना प्रकारके सुखोंकी प्राप्ति होती है । मोहका विजय, अशुभ आस्रव और दुष्कर्मोंका नाश, अतिशय विशुद्धता, सर्वोत्तम तात्त्विक आराधना, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूपी रत्नोंकी प्राप्ति, मनुष्य जन्मकी सफलता, संसारके भयका नाश, सर्व जीवोंमें समता और सज्जनोंके द्वारा कीर्तिका गान होता है । भावार्थ:-शुद्धचिद्रूपका स्मरण ही जब सौख्यका कर्ता, मोहका जीतनेवाला, अशुभ आस्रव एवं दुष्कर्मोका हर्ता होता है और अतिशय विशुद्धता, सर्वोत्तम आराधना सम्यग्दर्शन आदि रत्नोंकी प्राप्ति, मनुष्य जन्मकी सफलता, संसारके भयका नाश, सर्व जीवोंमें समता एवं सज्जनोंसे कीर्तिगान करानेवाला है, तब उसकी प्राप्ति तो और भी उत्तमोत्तम फल प्रदान करनेवाली होगी, इसलिये उत्तम पुरुषोंको चाहिये कि वे शुद्धचिद्रूपका सदा स्मरण करते हुये उसकी प्राप्तिका उपाय करें ॥ ५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org •
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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