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________________ प्रथम अध्याय] [ ११ और न देखने योग्य, ढूंढ़ने योग्य, कहने योग्य, ध्यान करने योग्य, सुनने योग्य, प्राप्त करने योग्य, आश्रय करने योग्य, और ग्रहण करने योग्य ही रहा; क्योंकि यह शुद्धचिद्रूप अप्राप्त पूर्व-पहिले कभी भी प्राप्त न हुआ था, ऐसा है और अति प्रिय है । भावार्थः-संसारमें अन्य समस्त पदार्थ प्राप्त कर लिये । अभी तक केवल शुद्धचिद्रूप पदार्थ नहीं पाया था और उसके अभावमें पर पदार्थोंको आत्मिय मानकर बुद्धि भी मलिन हो रही थी; परन्तु भगवान जिनेन्द्र के उपदेशसे आज मुझे शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति हो गई है । परपदार्थ कभी मेरे हितकारी नहीं बन सकते, ऐसा निश्चय होनेसे मेरी बुद्धि भी निर्मल है, इसलिये संसारमें मेरे लिये जानने, देखने, ढूंढ़ने आदिके योग्य कोई पदार्थ न रहा । शुद्धचिद्रूपके लाभसे मैंने सबको जान लिया, देख लिया और सुन आदि लिया ।। १६ ।। शुद्धश्चिद्रपरूपोहमिति मम दधे मंक्षु चिद्रूपरूपं चिद्रूपेणैव नित्यं सकलमलभिदा तेनचिद्रपकाय । चिद्रूपाद् भूरिसौख्यात् जगति वरतरात्तस्य चिद्रूपकस्य माहात्म्यं वेत्ति नान्यो विमलगुणगणे जातु चिद्रूपकेऽज्ञात् ॥२०॥ इति मुमुक्षु भट्टारक श्री ज्ञानभूषणविरचितायां तत्त्वज्ञान तरंगिण्यां शुद्धचिद्रूप लक्षणप्रतिपादकः प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ अर्थः-शुद्धचित्स्वरूपी मैं समस्त दोषोंके दूर करनेवाले चित्स्वरूपके द्वारा चिद्रूपकी प्राप्तिके लिये सौख्यके भंडार और परम-पावन चिद्रूपसे अपने चिद्रूपको नित्य सत्वर धारण करता हूँ। मुझसे भिन्न अन्य मनुष्य उसके विषयमें अज्ञ हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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