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________________ ८] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणि , समझता था । दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, भले बुरे, प्रिय और अप्रिय आदि मानकर, हर्ष-विषाद करने लगता था, परन्तु जब मुझे आत्मिक चिदानंद स्वरूपका भान हुआ तब मुझे स्पष्ट जान पड़ा कि पर पदार्थोंसे मेरा किसी प्रकारका उपकार नहीं हो सकता, इसलिये इनसे तनिक भी प्रयोजन नहीं सध सकता ।। १४ ।। विक्रियाभिरशेषाभिरंगकर्मप्रसूतिभिः । मुक्तो योऽसौ चिदानंदो युक्तोऽनंतदृगादिभिः ॥ १५ ॥ अर्थः- यह शरीर और कर्मोंके समस्त विकारोंसे रहित है और अनंतदर्शन, अनंतज्ञान आदि आत्मिक गुणोंसे संयुक्त है । त्रिदानंद, भावार्थ : -- अंग और कर्म जड़ हैं । वे चिदानंद स्वरूप आत्माको किसी प्रकार विकृत नहीं बना सकते, इसलिये यह चिदानंदस्वरूप आत्मा उनके विकारोंसे सर्वथा विमुक्त है तथा अनंतदर्शन, अनंतज्ञान आदि जो इसके निजस्वरूप हैं उनसे सर्वदा भूषित है ।। १५ ।। असावनेकरूपोऽपि स्वभावादेकरूपभाग् । अगम्यो मोहिनां शीघ्रगम्यो निर्मोहिनां विदां ।। १६ ।। अर्थ: - यद्यपि यह चिदानंदस्वरूप आत्मा, अनेक स्वरूप है तथापि स्वभावसे यह एक ही स्वरूप है । जा मूढ़ हैंमोहकी श्रृंखलासे जकड़े हुए हैं, वे इसका जरा भी पता नहीं लगा सकते; परन्तु जिन्होंने मोहको सर्वथा नष्ट कर दिया है, वे इसका बहुत जल्दी पता लगा लेते हैं । भावार्थ:- आत्मा अनंतवीर्य आदि अनंत Jain Education International अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत सुख गुणों का भंडार है, इसलिये इसे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org •
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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