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प्रथम अध्याय सकें, उन्हें तो दर्शन-ज्ञान स्वरूप आत्मा ही जान सकता है, इसलिये पर्याय आदिके स्मरणरूप ज्ञानको रखनेवाले आत्माको अन्य पदार्थोसे जुदा कर पहिचान लेना चाहिये ।। ११ ।।
ज्ञप्त्या दक् चिदित ज्ञेया सा रूपं यस्य वर्तते । स तथोक्तोऽन्यद्रव्येण मुक्तत्वात् शुद्ध इत्यसौ ॥ १२ ॥ कथ्यते स्वर्णवत् तज्ज्ञैः सोहं नान्योस्मि निश्चयात् ।। शुद्धचिद्रूपोऽहमिति षड्वर्णार्थों निरुच्यते ॥ १३ ॥ युग्म ।।
अर्थः--ज्ञान और दर्शनका नाम चित् है । जिसके यह विद्यमान हो वह चिद्रूप-आत्मा कहा जाता है । तथा जिनप्रकार कीट कालिमा आदि अन्य द्रव्योंसे रहित सुवर्ण शुद्ध सुवर्ण कहलाता है, उसी प्रकार यह चिद्रूप समस्त परद्रव्योंसे रहित होनेसे शुद्धचिद्रूप कहा जाता है । वही 'शुद्धचिद्रूप' निश्चयसे 'मैं हूँ'-इस प्रकार " शुद्धचिद्रूप'' इन छह वर्णोंका परिष्कृत अर्थ समझना चाहिये ।।
दृष्टातैः श्रतैर्वा विहितपरिचितैनिदितैः संस्तुतैश्च, नीतः संस्कार कोटिं कथमपि विकृति नाशनं संभवं वै । स्थूलैः सूक्ष्मैरजीवरसुनिकरयुतैः खाप्रियैः खप्रियैस्तैरन्यैर्द्रव्यैन साध्यं किमपि मम चिदानंदरूपस्य नित्यं ॥ १४ ॥
अर्थः --मेरा आत्मा चिदानंद स्वरूप है मुझे परद्रव्योंसे, चाहे वे देखे हों, जाने हों, परिचयमें आये हों, बुरे हों, भले हों, भले प्रकार संस्कृत हों, विकृत हों, नष्ट हों, उत्पन्न हों, स्थूल हों, सूक्ष्म हों, जड़ हों, चेतन हों, इन्द्रियोंको प्रिय हों, वा अप्रिय हों, कोई प्रयोजन नहीं । . भावार्थः-जब तक मुझे अपने चिदानंदस्वरूपका ज्ञान न था तब तक मैं बाह्य पदार्थों में लिप्त था-उन्हें ही अपना
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