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________________ चौदहवां अध्याय ] [ १३५ छ खण्ड पृथ्वीके शासक थे, बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनके सेवक, छ्यानबे हजार आज्ञाकारिणी रानियाँ और भी हाथी, घोड़ा आदि लाखों करोड़ों थे; तथापि उनका सिवाय शुद्धचिद्रूपके जरा भो किसी में अनुराग नहीं था । वे सदा सबसे पगङमुख रहते थे, इमलिये जिस समय वे परिग्रहसे सर्वथा ममत्वरहित हो तपोवन गये उस समय मुनिराज होते ही उन्हें केवलजान हो गया और समस्त कर्मोंका नाश कर वे मोक्षशिला पर जा विराजे, उसीप्रकार भरत चक्रवर्तीके समान जो मनुष्य शरीर आदिमे ममत्व न कर शुद्धचिद्रूप में प्रेम करता है, वह राज्य का भोग करता हुआ भी कर्मोंसे नहीं वन्धता और मोक्ष सुखका अनुभव करता है ।। १२ ।। स्मरन् स्वशुद्धचिद्रपं कुर्यात्कार्यशनान्यपि । तथापि न हि बध्यते धीमानशुभकर्मणा ॥ १३ ।। अर्थः-आत्मिक शुद्धचिद्रूपको स्मरण करता हुआ बुद्धिमान पुरुप यदि सैकड़ों भी अन्य कार्य करे तथापि उसकी आत्माके साथ किसी प्रकार के अशुभ कर्मका वन्ध नहीं होता । भावार्थः-बन्धके होनेमें ममत्व कारण है । सैकड़ों कार्य करने पर भी यदि पर पदार्थोम किसी प्रकार की ममता नहीं हो तो कदापि वन्ध नहीं हो सकता ।। १३ ।। रोगेण पीडितो देही यष्टिमुष्टयादिताडितः । बद्धो रज्वादिभिर्दुःखी न चिद्रपं निजं स्मरन् ॥ १४ ॥ अर्थः - जो मनुष्य स्व शुद्धचिद्रूपका स्मरण करनेवाला है चाहे वह कैसे भी रोगसे पीड़ित क्यों न हो, लाठी पुर्कोसे, ताड़ित और रस्री आदिसे भी क्यों न बन्धा हुआ हो उसे जरा भी कलेश नहीं होता । अर्थात् वह यह जानकर कि-ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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