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[ तत्वज्ञान तरंगिणीं उत्पन्न होते हैं, उसीप्रकार शुद्धचिद्रूपके चिन्तवन करनेसे मुक्ति प्रदान करनेवाला धर्म भी उत्पन्न होता है- अर्थात् शुद्धचिद्रूपके ध्यान से अनुपम धर्मकी प्राप्ति होती है और उसकी सहायता से जीव मोक्ष सुखका अनुभव करते हैं ।। १० ।।
व्रतानि शास्त्राणि तपांसि निर्जने निवासमतर्बहिः संगमोचनं । मौनं क्षमातापनयोगधारणं चिर्चितयामा कलयन शिवं श्रयेत् ॥११॥
अर्थ :- जो विद्वान पुरुष शुद्धचिद्रूपके चितवनके साथ व्रतोंका आचरण करता है, शास्त्रोंका स्वाध्याय, तपका आराधन, निर्जनवन में निवास बाह्य अभ्यंतर परिग्रहका त्याग, मौन, क्षमा और आतापन योग धारण करता है, उसे ही मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ।
भावार्थ : - चाहे कितना भी व्रतोंका आचरण, शास्त्रोंका स्वाध्याय, तपका आराधन, निर्जन वनमें निवास, बाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग, मौन, क्षमा और आतापन योगको धारण करो, जब तक उनके साथ साथ शुद्धचिद्रूपका चिन्तवन न होगा तब तक उनसे कभी भी मोक्ष सुख प्राप्त नहीं होगा, इसलिये मोक्षाभिलापियोंको चाहिये कि कि वे व्रत आदिके आचरणके साथ अवश्य शुद्धचिद्रूपका चितवन करें ।। ११ ।।
शुद्धचिपके रक्तः शरीरादिपराङ्मुखः ।
राज्यं कुर्वन्न बन्धेत कर्मणा भरतो यथा ॥ १२ ॥
अर्थ : - जो पुरुष शरीर, स्त्री, पुत्र आदि से ममत्व छोड़कर शुद्धविद्रूप में अनुराग करनेवाला है, वह राज्य करता हुआ भी कर्मोसे नहीं बँधता जैसे कि चक्रवर्ती राजा भरत ।
भावार्थ:- - भगवान ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती राजा भरत
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