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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा० ८०प्रकरणबलात्प्रकृतीनां भेदं बन्धहेतूंश्च सूचयति
मूलुत्तर तह इयरा भेया पयडीण होति उहयाणं। हेउ दो पुण पुट्ठा हेऊ चत्तारि णायव्वा ॥८॥ मिच्छत्तं अविरमणं कसाय जोगा य जीवभावाहु । दव्वं मिच्छत्ताई य पोग्गलदव्वाण आवरणा ॥८॥ भावो दव्वणि मित्तं दव्वं पि य भावकारणं भणियं ।
अण्णोणेहेदुभूदा कुणंति पुट्ठी हु कम्माणं ॥८२॥ आगे प्रकरण वश कर्मप्रकृतियोंके भेद और बन्धके कारणोंको सूचित करते हैं
द्रव्यकर्म और भावकर्मके भेद मूलप्रकृति रूप और उत्तरप्रकृति रूप हैं। उनके द्रव्यप्रत्यय रूप और भावप्रत्यय रूप दो कारण हैं जो चारभेद रूप जानने चाहिए ।।८।।
विशेषार्थ-कर्मके दो भेद ऊपर कहे हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म । कर्मरूपसे परिणत पुद्गलस्कन्धोंको द्रव्यकर्म कहते है । और उन द्रव्यकर्मोके उदयका निमित्त पाकर जीवमें जो राग-द्वेष मोहरूप भाव होते हैं उन्हें भावकर्म कहते हैं । द्रव्यकर्म भावकर्ममें निमित्त होता है और भावकर्म द्रव्यकर्ममें निमित्त होता है। इस तरह द्रव्यकर्म और भावकर्मके द्रव्यप्रत्यय रूप और भावप्रत्यय रूप दो कारण है। इन कर्मोके दो भेद हैंमूलप्रकृति रूप और उत्तरप्रकृति रूप। इन भेदोंको ग्रन्थकार आगे स्वयं बतलायेंगे। तथा बन्धके चार कारणोंको भी कहेंगे।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप जीवके भाव भावप्रत्यय हैं और मिथ्यात्व आदि रूप पुद्गलद्रव्यकर्म द्रव्यप्रत्यय हैं ।।८१॥
विशेषार्थ-कर्मके जो दो कारण बतलाये हैं वे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगके भेदसे चार प्रत्ययरूप होते हैं । अर्थात् कर्मबन्धके ये चार कारण हैं और इनमेंसे प्रत्येकके द्रव्य प्रत्यय और भावप्रत्ययके भेदसे दो भेद हैं। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप जीवका भाव भावप्रत्यय है और मिथ्यात्व आदि 'नामक कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्य द्रव्यप्रत्यय है । समयसार गाथा १६४ की टीकामें जयसेनाचार्यने ऐसा ही लिखा है। यथा-'मिथ्यात्वविरतिप्रमादकषाययोगाः कथंभूताः, भावप्रत्ययद्रव्यप्रत्ययरूपेण संज्ञासंज्ञाश्चेतनाचेतनाः।
आगे भाव और द्रव्यमें कार्यकारण भाव बतलाते हैं
भाव द्रव्य में निमित्त है और द्रव्यको भावका कारण कहा है। दोनों परस्परमें एक दूसरेके हेतु होकर कर्मोंकी पुष्टि करते हैं ।।८२॥
विशेषार्थ-कर्मबन्धके कारण मिथ्यात्व आदि जीवरूप भी हैं और अजीवरूप भी हैं। कर्मका निमित्त पाकर जीव जो विभाव रूप परिणमन करता है वह चेतनका विकार होनेसे जीव ही है। और जो जीवके भावोंका निमित्त पाकर पुद्गल मिथ्यात्व आदि कर्मरूप परिणमन करते हैं वे मिथ्यात्व आदि अजीव हैं। इन्हींको क्रम भावसे और द्रव्य नामसे कहते हैं। स्वरूप परिणमन प्रत्येक वस्तुका स्वाभाविक धर्म है । अतः आत्माका भी वह स्वाभाविक धर्म है, किन्तु आत्मा अनादिकालसे वस्त्वन्तरभूत मोहसे संयुक्त है। अतः उसके मिथ्यादर्शन आदि रूप वैकारिक परिणाम होते हैं। उन परिणामोंका निमित्त मिलनेपर पुद्गल
१. आसवणा अ० क०। 'मिच्छत्तं अविरमणं कसाय जोगाय सण्णसण्णा दु। बहविहभेया जीवे तस्सेव अणण्णपरिणामा ॥१६४॥ णाणावरणादीयस्स ते दु कम्मस्स कारणं होति । तेसि पि होदि जीवो य रागदोसादिभावकरो ॥१६५॥'-समयसार । २. पणं बझंता अ. क. ख० मु०। ३. कुणंतु पुट्ठी सु कम्माणं अ०।
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