________________
-७९]
नयचक्र
संबन्धप्रकारमाह
जह जीवत्तमणाई जीवे बंधो तहेव कम्माणं । तं पि य दव्वं भावं जाव सजोगिस्स चरिमंतं ॥७९॥
परिणत होते हैं तो उन्हें विषम कहते हैं। सभ और विषमोंमें दो का अन्तर होनेसे ही बन्ध होता है जैसे दो गुण वाले परमाणुका बन्ध चार गुणवाले परमाणुके ही साथ होता है। इसी तरह तीन गुणवाले परमाणुका बन्ध पाँच गुणवाले परमाणुके ही साथ होता है। इस प्रकार, दो-दो स्निग्धों, दो-दो रूक्षों और दो-दो स्निग्ध रूक्षोंका सम हों या विषम हों, दो गुण अधिक होनेपर ही बन्ध होता है। किन्तु जघन्य एक गुणवाले परमाणु का बन्ध नहीं होता । यह नियम है । सारांश यह है कि दो गुण युक्त स्निग्ध परमाणुका चार गुणयुक्त स्निग्ध परमाणुके साथ अथवा चार गुण युक्त रूक्ष परमाणु के साथ बन्ध होता है। इसी तरह तीन गुणवाले रूक्ष परमाणुका पाँच गुणवाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणुके साथ बन्ध होता है। इस बन्धमें अन्तरंग ‘कारण तो परमाणुके स्निग्ध और रूक्ष गुणोंका तदनुरूप परिणमन है । किन्तु उस परिणमनमें कालको भी निमित्त माना गया है, किन्तु कालद्रव्य प्रेरक निमित्त नहीं है, उदासीन निमित्त है। जब परमाणमें बन्ध योग्य परिणमन पूर्वक बन्ध होता है तो काल भी निमित्त हो जाता है किन्तु वह बन्ध कालकृत नहीं है। इस प्रकार स्निग्धरूक्ष गुणके कारण पुद्गल परमाणुओंकी जो स्कन्धरूप परिणति होती है वह विभाव पर्याय है ।
आगे जीवको विभाव परिणतिको बतलाते हैं
जैसे जीवमें जीवपना अनादि है वैसे ही उसके साथ कर्मोंका बन्ध भी अनादि है। कर्मके दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भावकमं । यह कर्मबन्ध सयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थानके अन्त तक होता रहता है ।।७९।।
विशेषार्थ-जैसे जीव अनादि है, वैसे ही उसके साथ कर्मबन्ध भी अनादि है। तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्यायमें बन्धका लक्षण इस प्रकार कहा है-'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः ।' कषायसहित होनेसे जीव जो कर्मके योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है उसे बन्ध कहते हैं। इस सूत्र में 'कर्मयोग्यान्' न कहकर जो 'कर्मणो योग्यान्' कहा है उससे यह बतलाया है कि जीव कर्मके निमित्तसे सकषाय होता है और कषाय सहित होनेसे कर्मके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है। अतः जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि है । पहले बाँधे हुए कर्मका उदय होनेपर जीवमें कषाय उत्पन्न होती है और कषायके होनेपर नवीन कर्मोका बन्ध होता है। इस तरह कर्मसे कषाय और कषायसे कर्मकी परम्परा अनादिकालसे चली आती है । यदि ऐसा न मानकर बन्धको सादि माना जाये, अर्थात् यह माना जाय कि पहले जीव अत्यन्त शुद्ध अवस्था में था, पीछे उसके कर्मबन्ध हआ तो जैसे अत्यन्त शुद्ध मुक्तजीवों के कर्मबन्ध नहीं होता, वैसे ही उस जीवके भी कर्मबन्ध नहीं हो सकेगा। अतः यह मानना ही उचित है कि जीवकी तरह उसके साथ कर्मोंका बन्ध भी अनादि है। जैनसिद्धान्तके अनुसार यह समस्त लोक पुद्गलोंसे ठसाठस भरा है। उनमें अनन्तानन्त परमाणु कर्मरूप होनेके योग्य है। इसीसे उनके समुदायको कार्मणवर्गणा कहते हैं। वे कार्मणवर्गणारूप स्कन्ध जीवके मिथ्यात्व आदिरूप परिणामोंका निमित्त पाकर स्वयं ही आठकर्म रूपसे,सातकर्म रूपसे या छह कर्मरूप से परिणत होकर जीवके साथ बन्धको प्राप्त होते हैं। जैसे खाया हुआ भोजन उदरमें जाकर सातधातु रूप परिणत हो जाता है । कर्म आठ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । ये कर्म योग और कषायके निमित्तसे बँधते हैं। तथा आयु कर्म सदा नहीं बँधता: विशेष स्थितिमें ही वैधता है। किन्तु शेष सातों कर्म सदाकाल बंधते रहते हैं। मोहनीयकर्मका बन्ध नौवें गुणस्थान तक ही होता है । और दसके पश्चात् ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें सयोगकेवली नामक गुणस्थान में केवल एक सातावेदनीय कर्मका ही बन्ध होता है। इस तरह कर्मका बन्ध सयोगकेवली गुणस्थान पर्यन्त हो जानना चाहिए । चौदहवें गुणस्थानमें बन्धका अभाव है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org