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________________ -५६ ] एकान्तपक्षे तु— सव्वे वि य एयंते दव्वसहावा विदूसिया होंति । दुट्ठे ताण ण हेऊ सिज्झइ संसार मोक्खं वा ॥५५॥ स्वमतसमर्थनार्थं दृष्टान्तमाह व्वं विस्ससहावं ऍक्सहावं कथं कुदिट्ठीहिं । लक्षूण एयदेसं जह करिणो जाइअंधेहि ॥ ५६ ॥ नयचक्र एकान्त पक्ष में दोष बतलाते हैं - कारने वस्तु अंशोंको भजनीय कहा है । तथा सापेक्ष दशा में उन्हें वस्तुरूप और निरपेक्ष दशामें अवस्तुरूप कहा है। २१ सभी एकान्त मतों में द्रव्यका स्वभाव दूषित सिद्ध होता है । और उसके दूषित होनेपर संसार और मोक्ष और उनके कारणोंकी प्रक्रिया नहीं बनती ॥५५॥ विशेषार्थ - भावैकान्त, अभावैकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त, अद्वैतैकान्त, द्वैतैकान्त, आदि एकान्तवादों में वस्तुका ही स्वरूप नहीं बनता, तब संसार और मोक्षकी तो बात ही क्या है ? इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-यदि भावैकान्त माना जाता है और अभावको बिलकुल नहीं माना जाता तो जो कुछ है वह सत्स्वरूप ही है, असत्स्वरूप कुछ भी नहीं है । ऐसा माननेपर प्रत्येक वस्तु सर्वात्मक हो जायेगी, क्योंकि किसी वस्तुका दूसरी वस्तुमें अभाव तो है ही नहीं । प्रत्येक वस्तुका वस्तुत्व दो बातों पर निर्भर है- - स्वरूपका ग्रहण और अपनेसे भिन्न अन्य सब वस्तुओं के स्वरूपोंका अग्रहण । यदि ऐसा न माना जाये तो एक वस्तुका स्वरूप दूसरी वस्तुके स्वरूपसे भिन्न न होकर एकाकार हो जायेगा और ऐसा होनेसे सब वस्तुएँ अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ताको खोकर एकाकार हो जायेंगी । तत्र घट, पट, पुस्तक आदिका भेद ही नहीं रहेगा, क्योंकि सबका स्वरूप परस्पर में मिला-जुला है । इस विपत्तिसे बचने के लिए एकका दूसरे में अभाव मानना ही होगा-घट घटरूप ही है पटरूप नहीं है, पट पटरूप ही है, घटरूप नहीं है। अतः घटका पटमें अभाव है और पटमें घटका अभाव है । इसलिए प्रत्येक वस्तु भावाभावात्मक है; वह न केवल भावात्मक है और न केवल अभावात्मक है । स्वरूपकी अपेक्षा भावात्मक है और पररूपको अपेक्षा अभावात्मक है । यदि भावैकान्तकी तरह अभावैकान्त माना जायेगा तब तो सब कुछ शून्य हो जायेगा; क्योंकि जब केवल अभाव ही अभाव है, भाव है ही नहीं, तब न संसार है और न मोक्ष । इसी तरह 'सब कुछ नित्य ही है, अनित्य कुछ है ही नहीं' ऐसा नित्यैकान्त माननेपर जो वस्तु जिस रूपमें है वह उसी रूपमें सदा रहेगी उसमें कुछ भी परिणमन नहीं होगा, तो संसारका कोई भी कार्य नहीं हो सकेगा, मिट्टी से कभी भी घट नहीं बनेगा संसारी सदा संसारी ही बना रहेगा अथवा संसार ही नहीं बनेगा, क्योंकि जीवमें पुण्य-पापरूप क्रिया होनेसे जीव मरकर एक योनिसे दूसरी योनि में जन्म लेता रहता है, इसे ही संसार कहते हैं । सर्वथा नित्यमें तो क्रिया ही संभव नहीं है। यदि क्रिया मानी जायेगी तो वह सर्वथा नित्य नहीं रहेगा सर्वथा अनित्य माननेपर पैदा होते ही जब वस्तु सर्वथा नष्ट हो जाती है, तो जिसने जन्म लिया वह तो नष्ट हो गया, अब नया जन्म किसका होगा ? जिसने शुभ या अशुभ कर्म किया वह तो नष्ट हो गया, उसका फल कौन भोगेगा ? जिसने मोक्षके लिए प्रयत्न किया । वह तो नष्ट हो गया अब मोक्ष किसको होगा ? अतः एकान्तपक्ष सदोष है, उसे नहीं मानना चाहिए । Jain Education International १. 'कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकान्तग्र हरक्तेषु नाथ स्वपरवैरिषु ॥ ८॥ ' -आ०मी० । २. परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यने कान्तम् ॥२॥ 'पुरुषार्थसि० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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